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परीक्षा लेकर ही चयन कीजिए, लेकिन परीक्षा भी सही ढंग और सही नीयत से लीजिए

प्राचीन शिक्षा पद्धति में आधुनिक युग की भाँति परीक्षा लेने तथा उपाधि प्रदान करने की प्रथा का अभाव था। विद्यार्थी गुरु के सीधे संपर्क में रहते थे। जब वे एक पाठ याद कर लेते तथा गुरु उससे संतुष्ट हो जाता तब उन्हें दूसरा पाठ याद करने को दिया जाता था। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्त्तन नामक संस्कार आयोजित होता था तथा उसके बाद छात्र एक विद्वत्मंडली के सामने प्रस्तुत किया जाता था। वहाँ उससे उसके अध्ययन से संबंधित कुछ गूढ प्रश्न पूछे जाते थे। उसके अनुसार वह स्नातक बन जाता था। यहाँ उल्लेखनीय है, कि विद्वानों की सभा छात्र की योग्यता के विषय में अंतिम प्रमाण नहीं था, अपितु इस संबंध में अंतिम निर्णय उसे ज्ञान प्रदान करने वाले आचार्य का ही होता था। चरक तथा राजशेखर ने विद्वत्परिषदों का उल्लेख किया है, जो कवियों तथा विद्वानों की परीक्षा लेती थी। किन्तु यह परीक्षा आज की परीक्षा जैसी नहीं थी, अपितु इस इसमें विद्वानों की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया जाता था। वस्तुतः प्राचीन काल में छात्रों का उद्देश्य आधुनिक युग के छात्रों की भाँति उपाधियों के पीछे दौङता नहीं था। वे ज्ञान के सच्चे पिपासु थे। अपने अध्ययन को वे जीवन पर्यंत संजोये रखते थे। उनकी प्रबल अभिलाषा अपने देश की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने की थी और यही उनके समस्त शैक्षणिक क्रियाकलापों का मूलमंत्र था।

लेकिन इसी देश में नालंदा विश्वविद्यालय की मिशाल भी परीक्षा लेने के सन्दर्भ में अंकित की जानी चाहिए। विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी कि केवल विलक्षण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था। इससे पूर्व भी स्वयंवर के नाम पर रामायण, महाभारत और आश्रमों में गुरुओं द्वारा प्रदत्त शिक्षा की जाँच के लिए  विद्यार्थियों की परीक्षा लेने का इतिहास किसी से छुपा हुआ नहीं है। परीक्षा भले ही किसी के ज्ञान के जाँच का अंतिम निर्णायक ना हो लेकिन 120 करोड़ की आबादी वाले देश में होनहार और योग्य अभ्यर्थियों को उचित रोज़गार देने हेतु यह जरूरी कदम है, वरना और कोई उपाय पूरे विश्व में तो हाल फिलहाल में नहीं दिखता है। भारत में कठिन से कठिन परीक्षाओं को आयोजित करने का अपना इतिहास क्रम है और इस में उत्तीर्ण अभ्यर्थी इस बात को इंगित भी करते हैं कि होनहार युवक और युवतियों की भी कोई कमी नहीं है। लेकिन यह तभी संभव है जब परीक्षाएं बिना किसी भेदभाव, निष्पक्ष, उचित और समन्वय ढंग से लिया जाए जहां सबको, जो उसके योग्य हों, परीक्षा में बैठने का अधिकार हो और किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव की संभावना नहीं हो। लेकिन यह एक आदर्श स्थिति की बात हो रही है। आए दिन टी वी और अखबारों में परीक्षाओं से सम्बंधित धांधलियां और गड़बड़ियाँ सामने आती हैं और किसी के घर से किसी युवक या युवती के जान लेने की खबरें भी उसी अनुपात में हमारी आँखों के सामने प्रविष्ट होती हैं।

जब देश में परीक्षा आयोजित करने वाली तमाम संस्थाएं हैं तो फिर अलग मंत्रालय का गठन क्यों हो, यह एक नितांत आवश्यक प्रश्न है। पूरे देश में होने वाली परीक्षाओं पर नज़र रखने और उसे पारदर्शी बनाने हेतु तमाम निम्नांकित कारणों से भी परीक्षाओं के लिए अलग मंत्रालय के गठन की आवश्यकता महसूस की जाती है।

  • अगर परीक्षा के आयोजन के लिए अलग मंत्रालय होगा तो उनके लिए बजट में अलग से निश्चित राशि आवंटित होगी। मद की माँगों (डिमांड्स फॉर ग्रांट ) के रूप में मंत्रालय को बेहतर प्रदर्शन करने के लिए अग्रसरित किया जा सकता है। और इसी क्रम में कोई भी परीक्षा पैसों के अभाव में ना आयोजित की जाने की हर दलील पर रोक लग सकेगी।
  • मंत्रालय के गठन के कारण उनका अपना डेडिकेटेट कर्मचारी होगा जो पूरे साल पूरे देश  में होने वाली परीक्षाओं को निष्पक्ष रूप से आयोजित कराने में संलग्न  होगा। इससे कॉन्ट्रेट बेसिस पर लाए गए कर्मचारियों द्वारा आयोजित परीक्षाओं में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकेगा तथा सरकार का पैसा जो हर बार कॉन्ट्रैक्ट के लिए अनुमोदित किया जाता है, उसे बचाया जा सकेगा।
  • मंत्रालय के तौर पर परीक्षा केंद्रों का जब आवंटन किया जाता है तो बकायदा उनका परिक्षण हो तथा यह रिपोर्ट जारी हो कि उक्त परीक्षा केंद्र पर परीक्षा आयोजित करने की हर सुविधा मौजूद है तथा उनके स्टाफ परीक्षा कराने के लिए ट्रेंड हैं अन्यथा इन्हें रद्द कर दिया जाना चाहिए और गलत जानकारी देने के लिए दण्डित भी किया जाना चाहिए।
  • मंत्रालय होने के कारण परीक्षाओं के विभिन्न पहलुओं से सम्बंधित ट्रेनिंग आयोजित की जाएगी जिससे किसी भी परीक्षा केन्द्र से यह शिकायत ना आए कि परीक्षा आयोजित कराने के नाम पर परीक्षा केंद्र वाले केवल भुगतान राशि लेते हैं लेकिन उनके स्टॉफ को परीक्षा के विषय में कुछ भी मालूम नहीं होता तथा परीक्षार्थियों को मिलने वाली सुविधा की राशि कहीं और इस्तेमाल कर दी जाती है। हर परीक्षा केंद्र पर पानी पिलाने तथा महिला और पुरुष अभ्यर्थियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए लेकिन कई केंद्रों पर इनके नदारद होने की सूचना पाई जाती है। जब स्टॉफ ट्रेंड होंगे और उन्हें हर चीज़ की जानकारी होगी तो इस तरह की लापरवाही के संकेत कम मिलेंगे।

  • परीक्षाओं से सम्बंधित गलत प्रश्नों की वजह से परीक्षार्थियों को एक भयावह दौर से गुजरना पड़ता है। मंत्रालय के रूप में हर क्षेत्र के एग्जाम के पेपर बनाने वाले एक्सपर्ट मौजूद होंगे जिससे गलत प्रश्न बनने और गलत उत्तर की संख्या पर रोक लगाए जा सकेगी और मंत्रालय और विद्यार्थी दोनों का समय और पैसा बचाया जा सकेगा। मंत्रालय द्वारा पेपर्स को संघ लोक सेवा आयोग द्वारा काउंटर जांच कराना चाहिए ताकि गलती की कोई गुंजाइश ही ना बचे। इसके बावजूद भी अगर कोई गलती होती है तो हर सम्बंधित व्यक्ति की जवाबदेही होगी और आर टी आई एक्ट के समान उनकी सैलरी काटी जाए, ऐसा प्रावधान भी होना चाहिए। एक्साम कंडक्ट कराने में जितना लेट हो या अगर एग्जाम रद्द हो तो रेलवे की तरह पैसे वापस किए जाने चाहिए और जितना लेट हो उतना इंटरेस्ट भी मिलना चाहिए।
  • परीक्षाओं से सम्बंधित केस के लिए डेडिकेटेट फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का निर्माण हो जो इस मामलों का सुओ मोटो कॉग्निजेंस ( खुद-ब-खुद संज्ञान) ले तथा इनका  निपटारा त्वरित ढंग से करे ताकि परीक्षार्थियों का कम से कम नुकशान हो और उन्हें न्याय मिले। इन कोर्ट में यह भी घरेलू उत्पीड़न क़ानून की तरह स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी परीक्षा लेने वाली संस्था पर होना चाहिए जिससे परीक्षार्थियों का समय और पैसा इस कानूनी दाँव-पेंच पर खर्च ना हो।
  • मंत्रालय के तौर पर यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो परीक्षार्थी केंद्र के जिले  तक पहुँच कर भी केंद्र तक पहुँचने के लिए ठोकर खाते हैं या टैक्सी और टेम्पो को मनमाना भाड़ा देते हैं उनके लिए मेट्रो फीडर बस की तरह उस दिन के लिए  बसों की सुविधा की जाए ताकि किसी भी कारण से किसी भी विद्यार्थी की साल भर की मेहनत सिर्फ इसलिए जाया ना हो जाए कि वह केंद्र तक नहीं पहुँच सका।
  • मंत्रालय होने की वजह से इसके कार्यकलापों की जाँच संसद की स्थायी समिति के द्वारा कराई जा सकेगी तथा समिति की रिपोर्ट लोक सभा और राज्य सभा में प्रस्तुत की जा सकेगी जिस पर सांसद बहस कर सकते हैं तथा इसी खामियों पर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं। संसद में प्रस्तुत होने के बाद यह रिपोर्ट आम जनता के बीच बेहतर राय के लिए खुली होगी जिससे मंत्रालय सुझावों को अन्य नज़रिए से देख सकती है। संसद की स्थाई समिति मंत्रालय के द्वारा किए गए कार्यों पर और भी रिपोर्ट प्रस्तुत कर उनकी जवाबदेही बेहतर ढंग से तय कर सकती है।
  • मंत्रालय होने की वजह से इनका ऑडिट होगा जिससे इनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी और एक एक पैसे के खर्च का सही जवाब देना होगा।
  • मंत्रालय होने की वजह से इन्हें अपना वार्षिक रिपोर्ट बनाना होगा जो यह बताएगी कि मंत्रालय अपने कामों में कितना सफल हो पाई है और अगर सफल नहीं हो पाई है तो उनका कारण क्या है और उससे निजात पाने के लिए मंत्रालय ने क्या कदम उठाए हैं और उसका असर कितना कारगर साबित हुआ है।
  • मंत्रालय होने की वजह से परीक्षा आयोजित करने के लिए नवीनतम तकनीकी सुविधाओं के इस्तेमाल पर स्टडी की जा सकती है तथ जिसकी उत्पादकता राष्ट्रीय उत्पादकता आयोग, नई दिल्ली जैसी संस्थाओं द्वारा सुनिश्चित करवाई जा सकती है।
  • मंत्रालय होने की वजह से प्रभावित छात्रों को शियाकत करने के लिए एक निश्चित जगह को चिन्हित किया जा सकेगा, जिसके अभाव में एक आयोग दूसरे आयोग पर अपनी जिम्मेदारियां फेंकता रहता है और जिससे छात्र हार कर या तो गलत रास्ता इख्तियार कर लेते है, आत्महत्या कर लेते हैं या सरकार के प्रति उदासीन रवैया उत्पन्न कर असामाजिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
    हमारे सामने स्टाफ सेलेक्शन सर्विस के द्वारा आयोजित की जाने वाली ग्रेजुएट लेवल की परीक्षाओं के आयोजन की बदहाली का सच सामने हैं। इसके अलावे बी पी एस सी जो चार साल में एक परीक्षा का आयोजन करती है और जे पी एस सी जो झारखंड के बनने के 20 साल बाद भी इसकी आधी संख्या में भी परीक्षा का आयोजन नहीं कर सकी है, जैसे उदाहरण भी मुँह बाए खड़ी हैं। इस तरह की अनियमतता को सख्ती से ख़त्म करने के लिए भी मंत्रालय का गठन एक महान कदम होगा।
  •  देश की सर्वोच्च मानी जाने वाली सिविल सेवा की परीक्षा के लिए संघ लोक सेवा आयोग अभ्यर्थियों से केवल 100 रुपए लेती है जबकि कई राज्य लोक सेवा आयोग, बैंकिंग संस्थान, इंश्योरेंस इकाई  और भी अन्य अभ्यर्थियों से 800 से लेकर 1200 रुपए लेती हैं और फिर अपरिहार्य कारणों से परीक्षा रद्द होने की वजह से इन राशियों का होता क्या है यह किसी भी परीक्षार्थी को पता नहीं होता है। और तो और कई परीक्षा केंद्र वाले बच्चों के बैग रखने के 10 से 50 रुपए तक अवैधानिक रूप से पैसे ऐंठते हैं जिस पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। मंत्रालय का अपना स्टाफ होने की वजह से इस गतिविधियों पर तुरंत प्रतिबन्ध लगाया जा सकेगा। मंत्रालय होने के नाते हर परीक्षा के लिए एक सही फीस की घोषणा भी मंत्रालय द्वारा की जानी चाहिए ताकि विद्यार्थियों को बेकार के हरासमेंट से बचाया जा सके।

मंत्रालय के रूप में सरकार को यह भी देखना चाहिए कि अभ्यर्थियों को परीक्षा देने के लिए कितनी दूर तक जाना पड़ता है और किन किन प्रैक्टिकल समस्याओं के सामना करना पड़ता है। गरीब छात्र रात भर मच्छरों के साथ प्लेटफॉर्म पर रात बिता कर परीक्षा दे और कोई रात भर ए सी कमरे में सोकर और अगले दिन ए सी गाड़ी में आकर परीक्षा दे तो दोनों के परिणाम में अन्तर होना लाजिमी है। मंत्रालय के रूप में सरकार को जिला मुख्यालाओं में एक साथ 5000 छात्रों का एग्जाम लेने के लिए संघ लोक सेवा आयोग तथा उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की तरह अलग बिल्डिंग का निर्माण करना चाहिए जिससे अमीर और गरीब  छात्रों के बीच कम से कम परीक्षा देने में जो खाई है उसको पाटा जा सके। मंत्रालय इसी क्रम में बड़े-बड़े स्टेडियम, सिनेमा हॉल, कॉनफेरेन्स हाल का भी परीक्षा केंद्र के रूप में इस्तेमाल करने के बारे में सोच सकती है और नए भवन के निर्माण पर होने वाले व्यय की राशि को कम किया जा सकता है।

मंत्रालय अगर यह दलील देती है कि सरकार एक परीक्षार्थी के एग्जाम कंडक्ट करने, उसके जॉइनिंग तथा उसके ट्रेनिंग पर लगभग एक लाख रुपए खर्च करती है तो सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उस एक नौकरी को पाने में एक परीक्षार्थी कितना खर्च करता है। ऐसे केस बहुत ही कम होते हैं कि परीक्षार्थी को पहली बार में ही नौकरी मिल जाती है। किसी को भी अमूमन सामान्य तौर पर 5 से 6 परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है तब जाकर कोई एक नौकरी ढंग की, अपने पसंद की और घर के करीब की मिलती है। जब कोई विद्यार्थी अपने राज्य बिहार या राजस्थान जैसे जगहों को छोड़कर दिल्ली जैसे महानगर में परीक्षा की तैयारी करने आता है तो हर महीने उनपर लगभग 20000 रुपए ( खाना , रहना , पानी बिल , बिजली बिल और कपड़ा) का खर्चा आता है और कोचिंग, ट्यूशन , दवा , ट्रांसपोर्ट , परीक्षा का फॉर्म , केंद्र तक पहुँच कर वहाँ पर रूकने और खाने का खर्चा मिला कर यह लगभग 40000 रुपए  के करीब पहुँच जाता है और सालाना यह खर्चा लगभग 5 लाख के करीब आता है और पांच सालों में यह 25 लाख हो जाता है। तो यह बात बिलकुल विदित है कि कोई भी परीक्षार्थी सरकार की तुलना में एक परीक्षा पास कर नौकरी पाने में 25 गुना खर्च करता है।

मंत्रालय के रूप में यह रिपोर्ट भी सामने आनी चाहिए कि एक सफल परीक्षार्थी की वजह से और कितने लोगों की ज़िंदगी संवरती है और उन से कितने लोग प्रेरित होते हैं। और यह भी बताना चाहिए कि अपनी ज़िंदगी के 5 साल व्यतीत कर के जब कोई परीक्षार्थी अपने राज्य वापस जाता है तो वह कैसा महसूस करता है और उसे अपने ही समाज में किस निगाह से देखा जाता है। वो कितनी ग्लानि में जीता है और किस तरह बोझ से दबे हुए परिवार पर एक और बोझ बन कर सबके लिए परेशानी का सबब बन जाता है। मंत्रालय के तौर पर यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि किस परीक्षा की क्या माँगें हैं और उसकी आहर्ताएँ क्या होनी चाहिए। जहाँ सिर्फ़ लिखित परीक्षा से काम चल जाए वहाँ बेकार में तीन राऊंड और साक्षात्कार के दायरे को ख़त्म किया जाना चाहिए। परीक्षाओं से सम्बंधित विषय वस्तु बिलकुल साफ़ शब्दों में परिभाषित हो और कोई भी शक की गुंजाइश बरकरार ना रह जाए।

इस घने आबादी वाले देश में जहां एक पिऊन की नौकरी के लिए एम ए और पी एच डी वाले अभ्यर्थी 100 रिक्तियों के लिए 10 लाख फॉर्म भरते हैं वहाँ एक नौकरी पाना कितान दुरूह कार्य है, आप अनुमान लगा सकते हैं। लेकिन बच्चे फिर भी मेहनत करते हैं। लेकिन मेहनत तभी रंग लाएगी जब परीक्षाएँ सही ढंग से आयोजित की जाएँगी और जॉइनिंग समय से कराई जा सकेगी। बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे हिंदी भाषी राज्य के बच्चों के लिए ये कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स सिर्फ एग्जाम्स नहीं होते बल्कि अपनी क्षमता साबित करने का निर्णायक स्थल होता है, जाति -पाती और गरीबी की दीवार ढाहने के लिए फावड़ा होता है, शादी करने के लिए योग्य कन्या पाने का भी रास्ता होता है और समाज में प्रतिष्ठा और गौरव हासिल करने का गांडीव होता है। मंत्रालय के रूप में यह सब सुनिश्चित किया जा सकता है।

सलिल सरोज

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