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ध्यान की आध्यात्मिक चेतना

डॉ दिलीप अग्निहोत्रीभारत के पर्व किसी ना किसी रूप में प्रकृति चेतना से जुड़े रहते है। इसके मूल में आध्यात्मिक चेतना समाहित रहती है। लखनऊ ग्रीन सिटी के समारोह में ब्रह्मकुमारी संस्था की बहन स्वर्णलता का प्रवचन हुआ। उन्होने कहा कि व्यक्ति की अंतर व बाह्य चेतना परम् सत्ता से संबन्ध है। जो प्रत्यक्ष दिखता है,वही पूर्ण सत्य नहीं है।

इसके लिए प्रकृति की ओर चलना होगा। प्रकृति से दूर होने से भौतिक सुविधाएं तो बढ़ी है। लेकिन इस कारण जीवन में अनेक समस्याएं उभरी है। परिवार न्यूक्लियर हो रहे है,लोगों की जीवन शैली तनाव व बीमारियों की बढा रही है। इससे बचने के लिए प्रकृति के निकट जाना पड़ेगा। जीवन शैली में उसी के अनुरूप परिवर्तन करना होगा।

उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन की बैलेंस शीट जमा का खाता होता है। हम सभी के जीवन में बहुत महत्व है। जमा खाता के अनुसार ही उपभोग किया जाता है। अर्थात जो जमा किया उसी को खाते है। कुछ श्रेष्ठ कर्म इस जन्म मे या पिछले जन्म मे किया जिसका फल प्राप्त हो रहा है। कर्म और भाग्य का यह अविनाशी चक्र निरंतर चलता रहता है। अपने विचारों में परिवर्तन कर श्रेष्ठ कर्म करना चाहिए। जिससे तन मन धन और संबंधों में सदा के लिए सुख और शांति पूर्ण जीवन रहै। उन्होंने कहा कि व्यक्ति दूसरे ने विषय में बहुत कुछ जनता है, जानने का प्रयास करता है। इसमें उंसकी रुचि भी होती है। लेकिन आध्यात्म का प्रारंभ अपने को जानने से होता है।

व्यक्ति इसी से बचने का प्रयास करता है। अपने को केवल स्वार्थ भावना से नहीं समझा जा सकता। इसके लिए यह समझना चाहिए कि हम समाज को क्या दे सकते है। व्यक्ति से ही परिवार,परिवार,समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है। व्यक्ति जब श्रेष्ठता की शुरुआत अपने से करता है तो परिवार से लेकर राष्ट्र और मानवता सभी का कल्याण होता है। भौतिक जगत में बहुत उपलब्धियां हुई है। लेकिन व्यक्ति केवल भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं है। अपने को समझते है तो आत्मतत्व का बोध होता है। यहीं से परमात्मा की तरफ बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। हमारे ऋषियों ने चार पुरुषार्थ बताए है। धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष। जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की तरफ बढ़ना होता है। अन्य सभी क्रियाकलाप इसी भावना से प्रेरित होनी चाहिए।

यह मान्यता है कि अध्यात्म का मार्ग कठिन है। लेकिन ग्रहस्थ जीवन मे आध्यात्म को सहज व सरल रूप में शामिल किया जा सकता है। घर बड़ा भले न हो उसमें शांति व सौहार्द होना चाहिए। गुस्सा होने से पहले व्यक्ति शांत होता है। गुस्सा के बाद वह फिर शांति चाहता है। इसका अर्थ है कि शांति का भाव व्यक्ति में स्थायी रूप से रहता है। इससे व्यक्ति का हित होता है। गुस्सा अवगुण है। यह अस्थाई तत्व है। लेकिन अंततः नुकसान पहुंचाता है। आत्मा अजर अमर है। आज जो जीवन है उसके पहले भी जीवन रहा होगाआगे और जीवन होगा। यह सब अपने नियंत्रण या इच्छा से नहीं होता। व्यक्ति यह निर्णय नहीं कर सकता कि उसका जन्म कहा होगा। लेकिन विवेक से कर्म कर सकता है।

गीता में भगवान कहते है कि सभी कर्म हमको समर्पित करता चल। अब प्रभु को अच्छी वस्तु ही अर्पित की जाती है। कर्म भी उन्हें अर्पित करना हो तो इसे भी अच्छा करने का प्रयास करना किया जाएगा। इसलिए व्यक्ति को आत्मतत्व को समझना चाहिए। उपासना के लिए मन को शांत होना चाहिए। पति पत्नी दोनों में यदि अहम भाव होगा तो ग्रहस्थ जीवन तनावपूर्ण होगा। यदि सहयोग का भाव होगा तो शांति सौहार्द होगा। नारायण लक्ष्मी,शिव पार्वती,राम सीता सभी से यही प्रेरणा मिलती है।

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