राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हमेशा स्वच्छता पर ज़ोर देते रहे हैं. बापू का एक ही सपना था कि ‘स्वच्छ हो भारत अपना’. वर्तमान की केंद्र सरकार भी ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत राष्ट्रपिता के इस ख्वाब को आगे बढ़ाते हुए स्वच्छता पर विशेष ज़ोर देती रही है. लेकिन इसके बावजूद देश के कई ऐसे इलाके हैं जहां स्वच्छता दम तोड़ती नज़र आती है. चिंता की बात यह है कि आज गंदगी से न केवल मैदानी इलाके बल्कि पर्वतीय क्षेत्र भी अछूते नहीं हैं. पहाड़, जिसे साफ़ वातावरण के लिए जाना जाता था, आज वहां कचरे के ढ़ेर ने जगह ले ली है. जिसमें 80 प्रतिशत गंदगी प्लास्टिक की है जो पर्यावरण की दृष्टि में सबसे अधिक घातक है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के गंगोत्री से नामिक व पिंडारी ग्लेशियर तक बढ़ते प्लास्टिक के ढेर न केवल दूषित वातावरण बल्कि बढ़ते तापमान के लिए भी जिम्मेदार है. इसके चलते पर्वतों से निकलने वाली अधिकांश नदियों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. कभी जो नदियाँ उफानों पर रहा करती थी वह आज सूख के सिमटने लगी है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए लोगों में प्लास्टिक के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन’ भी रखा गया था.
पर्यटन किसी भी राज्य के राजस्व के साथ आजीविका का संसाधन भी होता है, लेकिन इसकी वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में कूड़े का ढ़ेर भी काफी अधिक देखने को मिल रहा है. आज पर्यटक पहाड़ो पर मौज-मस्ती करने आते है जिसमें जंगलों का प्रयोग सबसे अधिक किया जा रहा है. वहीं पर पार्टी की जाती है जिसके पश्चात् उनके द्वारा सारा कूड़ा बोतले, प्लास्टिक इत्यादि को वहीं पर फेंक दिया जाता है जो आस पास के पारिस्थितिक तंत्र, नदियों व नालों में जमा हो रहा है.
उत्तरकाशी में गोविन्द पशु विहार वन्यजीव अभयारण्य में आने वाले 5000 से अधिक परिवार के साथ पर्यटकों के द्वारा प्रतिमाह 15 मिट्रिक टन से अधिक सूखा कूड़ा उत्पन्न किया जाता है. इसके अतिरिक्त गांव-गांव तक प्लास्टिक पहुंच गया है लेकिन प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट एक्ट 2013 में उपलब्ध करायी गयी व्यवस्था के तहत गांवों मे इसका निस्तारण नहीं हो पा रहा है. फिलहाल तैयार कार्य योजना के तहत कचरे को एकत्रीकरण कर उसे रोड़ हेड तक पहुचाया जाएगा. अंतर्गत राज्य की 7791 ग्राम सभाओं को प्लास्टिक मुक्त किया जाएगा, जिसके लिए राज्य में उत्तराखंड प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट 2013 लागू किया गया है.
मिट्टी के चूल्हे से नहीं मिली मुक्ति
कुमाउ विश्वविद्यालय, नैनीताल की एक शोध के अनुसार अगले 20 वर्ष में सतह के तापमान में औसतन वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस व सदी के मध्य तक 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी होने की सम्भावना है. जिसका प्रमुख कारण मानवीय हस्तक्षेप को माना गया है. पर्वतीय क्षेत्रों में तेजी से हो रहे विकास कार्य तापमान वृद्धि में योगदान दे रहे हैं.
विकास गतिविधियों के तेज होने से मौसमीय संतुलन में गड़बड़ी हुई जिससे मौसम संबंधी आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है. इस संबंध में अल्मोड़ा स्थित सिरौली गांव के समाजसेवी दीवान सिंह नेगी बताते हैं कि ‘उत्तराखण्ड प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट योजना तभी संभव है जब लोग स्वयं पर्यावरण के प्रति गंभीर और जागरूक हों. फिर समाज को इसके प्रति जागरूक किया जाना चाहिए. सिर्फ कूड़ेदान लगाना या वितरित करने से कार्य नहीं चलेगा इनका प्रयोग व कूडे का निस्तारण आवश्यक है वरन् एक ढ़ेर को हटाकर कहीं दूसरी जगह ढ़ेर बनाना व्यर्थ है.’
दृढ़ता और संतोष, खुशियों के स्रोत
दरअसल, पहाड़ों में लगाये गये कूड़ेदान आज भी उतने ही साफ दिखायी दे रहे हैं जितने लगाते समय थे. मनुष्य को भी स्वच्छता व स्वास्थ्य के प्रति गंभीर होने की जरूरत है. पॉलिथीन मिट्टी में अघुलनशील होती जो भूमि की उर्वरक क्षमता को कम कर पैदावार में प्रभाव डालती है. इसका प्रयोग जानवर खाने में भी कर रहे हैं जो बहुत ही खतरनाक और सोचनीय विषय है. सरकार द्वारा पहाड़ को पॉलिथीन मुक्त किये जाने हेतु जुर्माना व्यवस्था लागू की गयी है पर यह क्या सिर्फ फुटपाथ पर बेचने वाले दुकानदारों पर लागू करना सही है? यदि वास्तव में पहाड़ को पॉलिथीन मुक्त बनाना है तो पहले उन कंपनियों पर अंकुश लगाने की जरूरत है जहां यह बनायी जाती है क्योंकि बाजार में आने वाली अधिकांश खाद्य सामग्री पॉलिथीन में पैक होती है.
प्लास्टिक कूड़े पर अपने अनुभव को साझा करते हुए नैनीताल नगर पालिका के सभासद मनोज जगाती बताते हैं कि ‘कूड़ेदान बना देने मात्र से उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक उसके निस्तारण पर कार्य नहीं किया जायेगा. सरकार द्वारा हर घर में कूड़े के डिब्बे दिये गये हैं जिनमें जैविक व अजैविक अवशिष्ठ को रखा जाना है. इस कूड़े को ले जाने के लिए सफाई कर्मचारी आते हैं, पर अधिकांश लोग डिब्बों में किसी भी प्रकार का कूड़ा डाल देते हैं. कई लोगों द्वारा इन कूडे का प्रयोग पानी व राशन तक के लिए किया जा रहा है. शहर को साफ रखने के लिए जो कूड़ेदान बनाये गये हैं वह आवारा जानवरों के अड्डे बन रहे हैं. कई जानवर इस गंदगी को खाते है जिनसे उनके पेट में प्लास्टिक चला जाता है और फिर उनकी बीमारी या मौत का कारण बन जाता है. दूसरी ओर कूड़ा सड़ने से निकलने वाली दुर्गन्ध न केवल वातावरण को दूषित कर रहा है बल्कि आसपास के लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहा है.
फिर न आए कभी वैसी भयावह सुबह 26 जून 1975 वाली!
हालांकि अब प्लास्टिक को रिसाइकल कर पुनः उपयोग में लाए जाने की प्रक्रिया भी तेज़ी से शुरू हो गई है. देश के कई शहरों में प्लास्टिक को रिसाइकल कर उसका उपयोग किया जाने लगा है. उत्तराखंड के नैनीताल में भी इसी प्रक्रिया के तहत कुछ कंपनियों द्वारा बैठने वाली कुर्सियों का निर्माण किया जा रहा है, जो काफी सुन्दर और आकर्षक हैं. इस प्रकार की कम्पनी को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. इसके अलावा कई सामाजिक संगठन भी अपने स्तर पर क्षेत्र को प्लास्टिक मुक्त बनाने और स्वछता पर तेज़ी से कार्य कर रहे हैं.
जिसके तहत शहर व आस-पास के कूडे का एकत्रित कर उसके सही निस्तारण पर कार्य कर स्वच्छ भारत मिशन में अपना बहुमूल्य योगदान दिया जा रहा है. इसके कोई दो राय नहीं है कि सरकार की ओर से स्वच्छता के संबंध में कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. लेकिन वह घरातल पर तभी सफल हो सकेगी जब उसके निस्तारण के लिए ठोस प्लान हो, अन्यथा कूड़े के ढेर में वृद्धि होती रहेगी और जल्द ही पहाड़ भी कूड़े के ढ़ेर में तबदील हो जायेगी. (चरखा फीचर)