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स्वतंत्रता आंदोलन के गुमनाम नायक: वीरांगना ऊदादेवी पासी, वीरा पासी, मदारी पासी और मक्का पासी

दया शंकर चौधरी

उत्तर प्रदेश की दलित जातियों में पासी समाज से कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुए हैं। इनके योगदान को हालांकि इतिहास में समुचित स्थान नहीं मिल सका है। परंतु रायबरेली के वीरा पासी, सण्डीला हरदोई के मदारी पासी और लखनऊ की वीरांगना ऊदा देवी पासी कुछ ऐसे प्रमुख नाम हैं, जिनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।

राय बरेली के वीरा पासी: अमर शहीद वीरा पासी एक और सेनापति थे, जिन्हें कथा में एक बहादुर योद्धा के रूप में याद किया जाता है। वह उत्तर प्रदेश के रायबरेली में मुरार मऊ के राजा बेनी माधव सिंह के सुरक्षा गार्ड थे। राजा बेनी माधव सिंह को विद्रोह में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था। एक रात, वीरा पासी ने जेल में प्रवेश किया और राजा को भागने में मदद की। यह ब्रिटिश प्रशासन का एक बड़ा अपमान था। अंग्रेजों ने वीरा पासी को मृत या जिंदा पकड़ने का फैसला किया, और उनके सिर पर उस समय 50,000 रुपये का इनाम रखा। हालांकि, वे उसे पकड़ने में असमर्थ थे।

हरदोई के मदारी पासी:  उन्नाव, लखनऊ और सीतापुर व हरदोई में मदारी पासी की लोकप्रियता बिल्कुल गाँधी जी की तर्ज पर कुछ अलौकिक किस्म की थी। मसलन उनके बारे में कहा जाता था कि वो हनुमान जी की तरह उड़कर कहीं भी पहुंच जाते हैं। गाँधी जी के साथ उनका चरखा जाता था और मदारी पासी के साथ उनकी चारपाई और छोटी कही जाने वाली अछूत जातियां। उनके लोग उन्हें भगवान की तरह मानते थे। पासी जातियां उन्हें अपना गाँधी ही मानती थीं। इसके पीछे एक कहानी प्रचलित है कि जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन पर जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कब्जा हो गया तो आम ग्रामीण भारतीयों की समस्या को आगे बढ़ाने के लिये जो छोटे छोटे नेतृत्व और संगठन पनपे उन्हीं में से एक था मदारी पासी का “एका आन्दोलन।” अवध क्षेत्र में जमींदारों के उत्पीड़न से उपजा किसान आन्दोलन अलग अलग क्षेत्रों में भिन्न भिन्न नामों से पनपा।

प्रतापगढ़ में इसका नाम “तीसा आन्दोलन” रहा और इसके नायक रामचंदर किसान रहे तो अवध के संडीला में मदारी पासी के साथ जुड़कर इसका नाम “एका आन्दोलन” हो गया। तत्कालीन दलित समाज की भूमि संबंधी समस्याओं और उनको संगठित करने के प्रयास के रूप में इस आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्व है। यह भी सच है कि मदारी पासी के नाम को जनपद के इतिहास में वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। मदारी पासी के जन्म के सम्बन्ध में कोई प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है परन्तु इनकी मृत्यु के साक्ष्य के रूप में ग्राम पहाड़पुर, ब्लॉक भरावन, तहसील सण्डीला, जनपद हरदोई में इनकी एक समाधि अवश्य उपलब्ध है जो संरक्षण के अभाव में तिरस्कृत पड़ी है।

लखनऊ की वीरांगना ऊदा देवी पासी और मक्का पासी: ऊदा देवी, एक भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी थीं जिन्होने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय सिपाहियों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। ये अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्य थीं। इस विद्रोह के समय हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय लगभग 2000 भारतीय सिपाहियों के शरणस्थल सिकन्दर बाग़ पर ब्रिटिश फौजों द्वारा चढ़ाई की गयी थी और 16 नवंबर 1857 को बाग़ में शरण लिये इन 2000 भारतीय सिपाहियों का ब्रिटिश फौजों द्वारा संहार कर दिया गया था।

इस लड़ाई के दौरान ऊदा देवी ने पुरुषों के वस्त्र धारण कर स्वयं को एक पुरुष के रूप में तैयार किया था। लड़ाई के समय वो अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गयी थीं। उन्होने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग़ में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया था जब तक कि उनका गोला बारूद खत्म नहीं हो गया।

वाजिद अली शाह की सेना में सैनिक थे ऊदा देवी के पति मक्का पासी: ऊदा देवी के पति नवाब वाजिद अली शाह की सेना के एक सैनिक थे। वाजिद अली शाह दौरे वली अहदी में परीख़ाना की स्थापना के कारण लगातार विवाद का कारण बने रहे। फरवरी, 1847 में नवाब बनने के बाद अपनी संगीत प्रियता और भोग-विलास आदि के कारण बार-बार ब्रिटिश रेजीडेंट द्वारा चेताये जाते रहे। उन्होंने बड़ी मात्रा में अपनी सेना में सैनिकों की भर्ती की जिसमें लखनऊ के सभी वर्गों के गरीब लोगों को नौकरी पाने का अच्छा अवसर मिला। ऊदादेवी के पति भी काफी साहसी व पराक्रमी थे, इनकी सेना में भर्ती हुए।

वाजिद अली शाह ने इमारतों, बाग़ों, संगीत, नृत्य व अन्य कला माध्यमों की तरह अपनी सेना को भी बहुरंगी विविधता तथा आकर्षक वैभव दिया। उन्होंने अपनी पलटनों को तिरछा रिसाला, गुलाबी, दाऊदी, अब्बासी, जाफरी जैसे फूलों के नाम दिये और फूलों के रंग के अनुरूप ही उस पल्टन की वर्दी का रंग निर्धारित किया। परी से महल बनी उनकी मुंहलगी बेगम सिकन्दर महल को ख़ातून दस्ते का रिसालदार बनाया गया।

स्पष्ट है वाजिद अली शाह ने अपनी कुछ बेगमों को सैनिक योग्यता भी दिलायी थी। उन्होंने बली अहदी के समय में अपने तथा परियों की रक्षा के उद्देश्य से तीस फुर्तीली स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता भी बनाया था। जिसे अपेक्षानुरूप सैनिक प्रशिक्षण भी दिया गया। संभव है ऊदा देवी पहले इसी दस्ते की सदस्य रही हों क्योंकि बादशाह बनने के बाद नवाब ने इस दस्ते को भंग करके बाकायदा स्त्री पलटन खड़ी की थी। इस पलटन की वर्दी काली रखी गयी थी।

ऊदा देवी, १६ नवम्बर १८५७ को 36 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतारकर वीरगति को प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें जब वो पेड़ से उतर रही थीं तब गोली मार दी थी। उसके बाद अंग्रेज सैनिकों ने जब बाग़ में प्रवेश किया, तो उन्होने ऊदा देवी का पूरा शरीर गोलियों से छलनी कर दिया। इस लड़ाई का स्मरण कराती ऊदा देवी की एक मूर्ति सिकन्दर बाग़ परिसर में कुछ ही वर्ष पूर्व स्थापित की गयी है।

ऐतिहासिक साक्ष्य: सार्जेण्ट फ़ॉर्ब्स मिशेल ने सिकंदर बाग के उद्यान में स्थित पीपल के एक बड़े पेड़ की ऊपरी शाखा पर बैठी एक ऐसी स्त्री का विशेष उल्लेख किया है, जिसने अंग्रेजी सेना के लगभग बत्तीस सिपाही और अफसर मारे थे। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई के समाचारों का जो डिस्पैच लंदन भेजा उसमें पुरुष वेशभूषा में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से फायरिंग करके तथा अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया।

संभवतः लंदन टाइम्स में छपी खबरों के आधार पर ही कार्ल मार्क्स ने भी अपनी टिप्पणी में इस घटना को समुचित स्थान दिया।इन्हें इसकी प्रेरणा अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पति मक्का पासी से प्राप्त हुई थी।

10 जून 1857 को लखनऊ के चिनहट कस्बे के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लॉरेंस के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज के साथ मौलवी अहमद उल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित, विद्रोही सेना की ऐतिहासिक लड़ाई में मक्का पासी वीरगति को प्राप्त हुए थे।

इसके प्रतिशोध स्वरूप उन्होंने कानपुर से आयी काल्विन कैम्पबेल सेना के 32 सिपाहियों को मृत्युलोक पहुँचाया। इस लड़ाई में वे खुद भी वीरगति को प्राप्त हुईं। कहा जाता है इस स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्पबेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी।

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