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वो पाँच दिन

डिम्पल राठौड़

वो पाँच दिन
॰॰॰
सुनो!

मैंने कहानियों में सुना हैं ‘वो पांच दिन’ होती है औरत अछूती

देते हो उसे भिन्न-भिन्न अवतार
कभी चुडैल, कभी शैतान
कभी बता देते हो राक्षसी अवतार

उसके छूने मात्र से आ जाता है विघ्न पूजा में
उसके छूने मात्र से मलिन हो जाते है कलश
उसके प्रवेश भर से हो जाती है पावन धरा मैली
उन्हें रखा जाता है दूर व्यंजन कक्ष से
वो एक अलग जीवन जीती है “वो पाँच दिन “

हालाँकि मैं भी शामिल हूँ उन्ही पांच दिन में
पहरा और पाबन्दी होती है मुझ पर भी
मैं कुंठित होती हूँ इस मानसिकता से
मैं नहीं मानती ये बंदिशें
बड़े बुजुर्ग के सम्मान के लिए
सील लेती हूँ होंठ!

मगर कभी-कभी कभी सवाल आते है
बवंडर बन कर दिलो दिमाग़ में
अगर ये “पांच दिन” की मलिनता से उत्पन होती है सृष्टि
तो क्या वो सभी सृजन भी उतने ही मलिन होंगे?
जितना मलिन कहते हो,
वो पांच दिन…???

आखिर किसने बनाई होगी ये परम्परा
बनाई भी होगी तो क्या सच में इसे हम
पांखड और अमानवीयता की
‘दोहरी मानसिकता’ नहीं कहेंगे…..??

डिम्पल राठौड़

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