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कहीं डिप्रेशन की शिकार तो नहीं हैं किशोरियां?

किशोरावस्था में मानसिक तनाव या अवसाद से पीड़ित होना समाज के लिए खतरे की घंटी की तरह होता है. सौभाग्य से हमारे देश के सरकारी अस्पतालों में भी इस बीमारी का मुफ्त और प्रभावी इलाज किया जाता है. यह एक ऐसी बीमारी है, जिसमें इंसान नकारात्मक विचारों के अंधे कुएं में गिरता जाता है. हमारे समाज में इस खतरनाक बीमारी को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. यह मानसिक और शारीरिक बीमारियों के बढ़ने का भी एक बड़ा कारण है.

जातिवाद के दंश से बेहाल समाज

दुख की बात यह है कि समाज में ज्यादातर लोग इस बात को मानने से इंकार करते हैं और ज्यादातर समय डिप्रेशन से पीड़ित लोगों को पागल कहकर समाज से अलग कर दिया जाता है. ऐसे में इंसान इससे उबरने की जगह और भी अधिक अवसाद का शिकार हो जाता है और रोगी का ठीक होना मुश्किल हो जाता है. यह वह मुश्किल समय होता है जब अवसाद से ग्रसित मरीज़ को सबसे अधिक अपनों की ज़रूरत होती है. यदि दोस्त और रिश्तेदार इस संकट की घड़ी में उसका साथ दें तो वह बहुत तेज़ी से इससे उबर भी जाता है.

कहीं डिप्रेशन की शिकार तो नहीं हैं किशोरियां

वर्तमान समय में युवा पीढ़ी को सबसे अधिक डिप्रेशन का शिकार देखा जा रहा है. शिक्षा का बोझ और फिर नौकरी की प्रतिस्पर्धा उसे धीरे धीरे डिप्रेशन की ओर धकेलती जाती है. इस तेज़ भागती ज़िंदगी में जो युवा और युवतियां खुद को प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता हुआ पाते हैं उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगता है. परिवार और समाज भी उनपर उनकी क्षमता से कहीं अधिक बोझ डाल देता है. जिसमें वह खुद को नाकाम पाने लगते हैं और धीरे धीरे अवसाद का शिकार हो जाते हैं.

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कई युवक और युवतियां तो इस कदर निराश हो जाते हैं कि खुद का जीवन तक समाप्त कर लेते हैं. 10वीं और 12वीं के परिणाम आशा के अनुरूप नहीं होने पर अक्सर लड़के और लड़कियां डिप्रेशन में चली जाती हैं. जबकि यही वह वक़्त है जब उन्हें अपनों के साथ और काउंसिलिंग की ज़रूरत होती है. हालांकि माना यह जाता है कि शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं में डिप्रेशन की स्थिति कम दिखाई देती है. लेकिन इसके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के किशोर अथवा किशोरियां डिप्रेशन का शिकार नहीं होते हैं.

ऐसा ही एक उदाहरण केंद्र शासित प्रदेश जम्मू के सीमावर्ती जिला पुंछ की मंडी तहसील के पिपरा गांव की रहने वाली 18 वर्षीय रुबीना अख्तर है. जो किशोरावस्था में अचानक डिप्रेशन की शिकार हो गई. दरअसल रुबीना के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. उसके पिता मेहनत मजदूरी कर किसी तरह अपने चार बच्चों का भरण-पोषण करते हैं. रुबीना को बचपन से पढ़ने का बहुत शौक था. लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने और परिवार में शिक्षा के प्रति जागरूकता नहीं होने के कारण वह कभी स्कूल नहीं जा पाई.

कहीं डिप्रेशन की शिकार तो नहीं हैं किशोरियां

जब वह अपनी उम्र के दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखती थी तो उसमें भी शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाती थी. वह कहती है कि यदि मेरे परिवार के पास कुछ साधन होता तो मुझे भी स्कूल में पढ़ने का अवसर मिलता. वह हमेशा यही सोचती थी कि हमारे घर का वातावरण अच्छा होगा तो हम भी अन्य लोगों की तरह अच्छा जीवन व्यतीत करेंगे. इसी सोच के साथ वह धीरे धीरे डिप्रेशन में चली गई.

डिप्रेशन की वजह से वो कई बीमारियों का शिकार भी हो चुकी है. उसने खुद से खाना पीना भी बंद कर दिया है. उनकी हालत को लेकर उनके परिजन भी काफी चिंतित रहते हैं. उसकी मां गुलज़ार बी कहती हैं कि वह बचपन से तेज़ तर्रार थी. वह खूब पढ़ना चाहती थी. लेकिन घर की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं होने के कारण स्कूल नहीं जा सकी. वह अपने गांव की अन्य लड़कियों को स्कूल जाते, अच्छे और नए कपड़े पहनते देखकर सोचती कि अगर हमारे पास भी कुछ साधन होता तो मैं भी स्कूल जाती और अपने सभी शौक को पूरा करती.

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धीरे धीरे यही सोच ने उसे डिप्रेशन के गहरे कुएं में धकेल दिया. आज गांव वाले उसे पागल समझते हैं. जागरूकता की कमी के कारण गुलज़ार बी को यह नहीं पता कि वह अपनी बेटी का इलाज कहां और कैसे कराये? आज रुबीना की मानसिक स्थिति के कारण पूरे परिवार में सन्नाटा पसरा हुआ है. किसी को पता नहीं कि वह कब और किस समय क्या कदम उठा ले? कई बार उसने खुद को नुकसान पहुंचाने और आत्महत्या करने की कोशिश भी की है.

इस संबंध में डॉ. अहमद दीन कहते हैं कि अवसाद एक विशिष्ट स्थिति का नाम है जिसमें रोगी स्वयं को अकेला, दुखी और असफल समझने लगता है. ऐसी घटनाएं जो उसके मन मस्तिष्क में नकारात्मक पक्ष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं और ऐसी स्थिति में यदि रोगी को परिवार या दोस्तों का पर्याप्त सहयोग न मिले और समय पर उपचार पर ध्यान न दिया जाए तो रोगी की मानसिक स्थिति बिगड़ने लगती है. जो उनकी सोशल और प्रोफेशनल लाइफ के लिए घातक साबित होती है. डॉ दीन सलाह देते हैं कि यदि आपकी दिनचर्या प्रभावित होती है तो आपको इसके निदान के लिए किसी पेशेवर की मदद लेनी चाहिए.

यह पेशेवर आपका सामान्य चिकित्सक या मनोरोग विशेषज्ञ भी हो सकता है. उन्होंने कहा कि सरकारी अस्पतालों में भी इसका प्रभावी और मुफ्त इलाज उपलब्ध है. वह कहते हैं कि युवा पीढ़ी विशेषकर किशोरियों में इसके लक्षण गंभीर चिंता के विषय हैं क्योंकि ग्रामीण समाज इस रोग के प्रति बहुत अधिक जागरूक नहीं है. ऐसे में वह इस तरह के मरीज़ों को लोग पागल समझने की भूल करता है. कई बार घर के अंदर ही लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता देने और उन्हें सभी अवसर प्रदान करने के कारण भी ग्रामीण किशोरियां डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के तहत लिखा गया है. (चरखा फीचर)

      रेहाना कौसर ऋषि

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