बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और करोड़ो की सम्पति की मालिक मायावती तमाम ऐसे लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो दलित परिवार में जन्म लेने के कारण हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। मायावती ने कभी दलित होने को अभिशाप नहीं समझा। बल्कि अपनी सूझबूझ से माया ने दलित परिवार में जन्म लेने को भी एक सुनहरे मौके में बदल दिया। दलित चिंतक और नेता मान्यवर काशीराम को जब मायावती में अपनी ‘सियासी परछाई’ दिखाई दी तो उन्हें इस बात की तसल्ली हो गई कि जिस दलित मिशन को वह (काशीराम) बढ़ती उम्र के कारण मुकाम तक नहीं पहुंचा पाए हैं, उसे मायावती मुकाम दिलाएंगी, ताकि दलित समाज में शान से जी सके। इसी लिए काशीराम ने अपने जीतेजी उस मायावती को दलितों की आवाज बना दिया जो एक आईएएस अधिकारी बनकर देश-दुनिया को यह बताना चाहती थी कि दलितों में भी काबलियत की कमी नहीं है। बस उन्हें मौके की तलाश है।
काशीराम ने मायावती को सियासी जामा पहनाया तो माया ने अपनी काबलियत के बल पर मजबूत दलित वोट बैंक तैयार कर दिया। इसी वोट बैंक के सहारे माया ने चार बार उत्तर प्रदेश की बागडोर संभाली। माया ने कभी एतराज नहीं किया कि उन्हें लोग दलित की बेटी कहते हैं। राजठाठ से रहले वाली मायावती को चिढ़ तो तब होती थी, जब लोग उन्हें दौलत की बेटी कहते थे। हां, जब माया को सियासी रूप से यह लगने लग कि सिर्फ दलित वोट बैंक के सहारे सत्ता की सीढ़िया नहीं चढ़ी जा सकती हैं तो माया ने अन्य जातियों के मतदाताओं को लुभाने के लिए भी खूब पैतरेबाजी की। उनके द्वारा बनाई गई भाई-चारा कमेटी को कौन भूल सकता है। कभी वैश्य-ब्राहमणों पर डोरे डाले तो कभी क्षत्रिय वोटरों को लुभाया। सत्ता हासिल करने के लिए मायावती ने ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाया’ का नारा भी खूब उछाला, लेकिन माया को सबसे अधिक दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सियासत रास आई।
हमेशा इस बात की चर्चा होती रहती है कि समाजवादी पार्टी यादव-मुस्लिम तो बसपा दलित-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे ही सियासत में सम्मानजनक स्थान हासिल कर पाए थे। उत्तर प्रदेश में मायावती पिछले तीन दशकों से दलित वोटरों की अकेली ‘ठेकेदार’ बनी हुई हैं। उन्हें कहीें से कोई विशेष चुनौती नहीं मिली। बीते कुछ वर्षो में अगर मायावती को किसी ने थोड़ा-बहुत परेशान किया है तो वह हैं भीम आर्मी के प्रमुख चन्द्रशेखर रावण। रावण अपने आप को मायावती का भतीजा भी बताता है और उनके दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश भी करता रहता हैं। दलित ही नहीं, माया की तरह मुस्लिम वोट बैंक पर भी रावण गिद्ध दृष्टि जमाए हुए हैं। इसी लिए नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जब कुछ मुसलमानों ने संघर्ष का बिगुल बजाया तो रावण भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल दिया। तब्लीगी जमात पर जब कोरोना फैलाने का आरोप लगा तब भी रावण ने इसके विरोध में हंगामा किया।
लब्बोलुआब यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ अराजक तत्वों द्वारा अनुसूचित जाति के परिवारों पर जुल्म ढाए जाने की घटना तो निंदनीय है हीं, उससे अधिक दुखद यह है कि जो राजनीतिक दल दशकों से अनुसूचित जातियों का दशको तक भावनात्मक शोषण करते रहे, वह नेता दलितों के घर फूंके जाने और उनकी बेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किए जाने पर इसलिए सधे लहजें में प्रतिक्रिया दे रहे थे कि कहीं पीड़ित दलितों के पक्ष में उनकी दी गई बयानबाजी से मुस्लिम वोटर नाराज न हो जाएं। दलितों के साथ इससे बड़ा धोखा और क्या हो सकता है कि जिन दलों और नेताओं पर बार-बार विश्वास करके उन लोगों (दलितों ने) ने सत्ता की सीढ़िया चढ़ने में मदद पहुंचाई, वे दल इतने घटिया स्तर की वोटबैंक राजनीति कर रहे हैं कि दलितों की जान-माल और बहू-बेटियों की इज्जत पर हमलों का डंके की चोट पर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। पीड़ित दलित परिवार के लोगों को इस बात का जरूर संतोष हुआ होगा कि मुख्यमंत्री ने उन पीड़ितों की भरपूर सहायता की,लेकिन यह बात मायावती को कैसे रास आ सकती थी,इस लिए उन्होंने नया शिगूफा छोड़ दिया। बसपा प्रमुख ने कहा कि आजमगढ़ में दलित बेटी के साथ हुए उत्पीड़न के मामले में कार्रवाई को लेकर यूपी के मुख्यमंत्री देर आए पर दुरुस्त आए, यह अच्छी बात है. लेकिन बहन-बेटियों के मामले में कार्रवाई आगे भी तुरन्त व समय से होनी चाहिये तो यह बेहतर होगा।
आजमगढ़ और जौनपुर में दलितों पर अत्याचार और उसको लेकर माया की पहले चुप्पी और फजीहत पर मायावती ने घटना में लिप्त लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग भले कर दी हो,लेकिन मायावती का असली चेहरा और मकसद तो सब समझ ही गए। इसी लिए जानकार तो यही कह रहे हैं कि मुसीबत की घड़ी में दलित वोट बैंक की सियासत करने वाले नेता चुप रहे, इस बात का मलाल पीड़ितों और दलित चिंतकों को उतना नहीं हुआ होगा, जितना यह देखकर हो रहा होंगा ट्विटर पर लगातार सक्रिय मायावती ने उसी बीच ट्वीट कर जेएनयू और जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी की रैंक बेहतर होने पर उक्त संस्थाओं को बधाई दी लेकिन, जौनपुर में अनुसूचित वर्ग के लोगों के घर जलाने के प्रकरण पर सहानुभूति जताने के लिए मायावती की जुबान से दो शब्द निकले में काफी समय लग गया। ऐसे मसलों पर अक्सर कूच का एलान करने वाले भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर को भी आजमगढ़ व जौनपुर के अपने समाज की पीड़ा का अहसास नहीं हुआ। अक्सर मुखर रहने वाले इन नेताओं की खामोशी ने अनुसूचित जातियों से उनके वोटबैंक की सियासत के चलते मायावती और चंद्रशेखर जैसे नेताओं के रवैये को लेकर सवाल उठने लगें है।
माया-रावण के इस कृत्य से दुखी रिटायर्ड आइपीएस और पूर्व डीजीपी बृजलाल ने ट्वीट कर मायावती और चंद्रशेखर पर निशाना साधा। उन्होंने लिखा मायावती आपने सियासी मंच पर दशकों खुद को दलित की बेटी कहकर सत्ता का मजा लिया है। आज आजमगढ़ की दलित बेटियां आपको पुकार रही है। और आप चुप है। गेस्ट हाउस कांड की पीड़ा से कम यह दर्द नहीं है। बहनजी। आजमगढ़ में मुस्लिम लड़कों ने दलितों को बेरहमी से पीटा, जो कि अपनी बालिकाओं से की जा रही छेड़छाड़ का विरोध कर रहे थे। इनती संवेदनशील घटना पर मायावती और प्रो. दिलीप मंडल चुप्पी साधे हैं।
बृजलाल ने भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर को भी कठघरें में खड़ा किया। उन्होंने लिखा दलित वर्ग कह रहनुमाई की नुमाइश करने वाले बहुरूपिए भीम आर्मी चीफ जौनपुर व आजमगढ़ की लोमहर्ष घटना पर खामोश हो? जौनपुर-आजमगढ़ की घटनाओं पर बसपा सुप्रीमों मायावती की चुप्पी और दबाव पड़ने पर उक्त घटना की आलोचना के कई मायने हैं। दरअसल, मायावती मुस्लिम-दलित गठजोड़ के सहारे 2022 में फिर से सत्ता हासिक करने का सपना देख रही हैं। इसी क्रम में बीते वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में प्रदेश के 19 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को हासिल करने के लिए टिकटों के बंटवारे में उनकी बड़ी हिस्सेदारी तय की गई थी मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने के लिए ही उन्होंने गत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से भी गठबंधन किया था। इसी तरह भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर भी इसी समीकरण के सहारे खुद को बसपा का विकल्प बनाने की कोशिश में लगे है। इसी लिए चन्द्रशेखर ने पहले नागरिकता सुरक्षा कानून और फिर कोरोना संक्रमण के दौर में तब्लीगी जमात का खुला समर्थन कर मुस्लिमों में पकड़ बनाने की कोशिश की।
जौनपुर और आजमगढ़ की घटनाओं को लेकर बसपा सुप्रीमों मायावती और भीम आर्मी के चन्द्रशेखर रावण की ही नहीं कांगे्रस की महासचिव और उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका वाड्रा और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादवकी चुप्पी भी सताती रही। अगर यूपी में किसी को छींक भी आ जाए तो प्रियंका वाड्रा मोदी-योगी को कोसने-काटने लगती हैं,लेकिन मुस्लिम वोटों के सहारे यूपी में पैर जमाने की मंशा के चलते प्रियंका इस मुद्दे पर मुंह सिले बैठी हैं।् बात-बात पर मोदी-योगी सरकार के खिलाफ आंदोलन की रणनीति बनाने वाली प्रियंका के लिए संभवता दलित बेटियों का सम्मान मायने नहीं रखता होगा। वर्ना दंगाइयों के घर जाकर मातम मनाने वाली प्रियंका वाड्रा यों शांत नहीं रहती।