बुद्धिजीवियों और बॉलीवुड को इस बात पर मंथन करना चाहिए। भगवान् श्री राम और रामायण से हमारी आस्था जुडी हुई इसलिए उनसे जुडी हुई किसी भी चीज़ का लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध करना हमारा संवैधानिक अधिकार है। सबसे बड़ा सवाल है की अगर आने वाली पीढ़ी रामायण को इस तरह देखेंगी तो वो उसके महत्त्व को कैसे समझेंगी। ये सिर्फ एक मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रह जाएगी। आस्था में ज़माने के बदलाव का तर्क देना बेवकूफी है। आस्था कभी नहीं बदलती। इसलिए क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का ढोल पीटना बंद कीजिये। रामायण और महाभारत हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत हैं। भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम पूज्य ईश्वर हैं और इनसे जुड़े हुए दूसरे पात्र भी हमारे लिए अनुकरणीय और पूज्य हैं। इनसे सम्बंधित कोई भी बदलाव हमें स्वीकार नहीं है। हमें अपने अतीत के पात्रों और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों पर अथाह गर्व है।
आदिपुरुष अल्टीमेटम ने आदिपुरुष मूवी के टीज़र के रिलीज़ होने के बाद पूरे भारत में विवाद और बहस छेड़ दी है। कई बार ऐसा लगता है कि हिंदू देवी-देवताओं का उपहास उड़ाना, सनातन धर्म का मजाक बनाना और देवी-देवताओं को गलत तरीके से चित्रित करना नए ट्रेंड का हिस्सा बन गया है। ऐसा करने वालों को लगता है कि ये सब करने से वह काफी कूल लग रहे हैं। कई बार बोलने की आजादी के नाम पर, तो कभी धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर या फिर कला की आजादी के नाम पर, अक्सर हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जाता है।
आखिर सस्ती पब्लिसिटी के लिए कब तक हिंदू धर्म और देवी देवताओं का अपमान होगा? एक सवाल और उठता है कि आखिर लोगों में इतनी हिम्मत आती कहां से है? अब यूं ही मेरे मन में एक सवाल आया कि किसी और धर्म के देवता या गुरु होते तो क्या इसी तरह से उनका भी मजाक उड़ाया जा सकता था? यह हिंदू देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाने का पहला मामला नहीं है।
रोज सोशल मीडिया, टीवी और अन्य मंचों पर हिंदू धर्म के देवी-देवताओं का जो मजाक उड़ रहा है, उस पर हमने चुप्पी ओढ़ रखी है। ऐसा नहीं है कि हम लोगों को बुरा नहीं लगता है। लगता है। बस हम सोचते हैं कि इसका विरोध कोई और कर देगा। सोचने की बात है कि किसी भी धर्म का मखौल उड़ाने वाले व्यक्ति की भावना क्या होती है? सच तो ये है कि हिंदू धर्म में ही ऐसे कई लोग हैं, जो आपको खुद टारगेट करते हैं। क्या फैक्ट्स पर क्रिएटिविटी की जीत होगी? हमें भ्रमित पारिस्थितिकी तंत्र के यू.एस. रूप की ओर धकेल रहा है जहां सही को गलत से और अच्छे को बुरे से अलग करना मुश्किल है।
उत्तर बहुत सरल है; रचनात्मकता एक ऐसे क्षेत्र में शामिल हो सकती है जो धर्म के पहलुओं और सिद्धांतों को बदलने की कोशिश नहीं करता है। रचनात्मकता का उपयोग दोनों तरह से किया जा सकता है – नुकसान पहुँचाने के लिए या अच्छा करने के लिए। रचनात्मक कार्य जो समाज पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, हतोत्साहित करते हैं और उन्हें खुले तौर पर खारिज कर दिया जाना चाहिए और इसमें शामिल हैं: फिल्मों में अत्यधिक भ्रष्टता जो काल्पनिक हैं और वास्तविक घटनाओं से संबंधित नहीं हैं, महिलाओं को “वस्तुओं” के रूप में चित्रित करना, शराब को बढ़ावा देना और व्यभिचार आदि।
मुख्य मुद्दा यह है कि आज हम रचनात्मक कलाकारों की “जिम्मेदारियों” के बीच अंतर नहीं कर पा रहे हैं और यदि इन जिम्मेदारियों का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें दंडित किया जा सकता है। लेकिन यह कानूनी प्रक्रिया के अनुसार ही किया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक राज्य अपने नागरिकों की किसी भी बौद्धिक संपदा पर प्रतिबंध या प्रतिबंध की खुले तौर पर वकालत नहीं कर सकता है। चुनौती सभी कलाकारों और लेखकों के अधिकारों की रक्षा करने की है, जबकि समान रूप से उन्हें समाज को प्रभावित करने की कोशिश के लिए दंडित करने के लिए कानून है।
यह बहुत सीधा है और यहां हम एक ऐसे मुद्दे पर लगातार बहस कर रहे हैं जिसे सामान्य ज्ञान से निपटा जा सकता है। तथाकथित बॉलीवुड सभी को निशाना बना रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी तभी तक है जब तक किसी दूसरे समुदाय की आस्था पर चोट ना करे। धार्मिक नायको पर, फिल्म में नायको का सम्मान नही तो यह सनातनी आस्था पर कुठाराघात है। इसपर तत्काल प्रभाव से वैन लगना अति आवश्यक है। हिंदी फिल्म निर्माताओं को 60 और 70 के दशक की फिल्म निर्माण की ओर लौटना चाहिए। जहां अच्छे अभिनय, कहानी में मेलोड्रामा और अच्छे संगीत ने फिल्म को हिट बनाया। निर्माता लालची हो गए हैं और हिंदू धर्म के साथ सीमा पार करने और स्वतंत्रता लेने को तैयार है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी सिर्फ एक धर्म के लिए क्यों ? अगर किसी और धर्म के बारे में कोई कुछ बोल दे तो सर तन से जुदा , ये दोहरा मापदंड क्यों ? एक लोकतान्त्रिक देश में जहां सब बराबर है, संवैधानिक तरीके से विरोध की आज़ादी सबको है। किसी को बीच सड़क पर मार देना सही है या लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध करना। रामानंद सागर ने जब रामायण को टीवी पर प्रसारित किया तो इस देश के बहुसंख्यक समाज ने खुले मन से इसका स्वागत किया,किसी ने इसका विरोध नहीं किया।
फिर आज ऐसा क्यों है की लोगो को हिन्दू धर्म से जुडी फिल्मो का विरोध करना पड़ रहा है। बुद्धिजीवियों और बॉलीवुड को इस बात पर मंथन करना चाहिए। भगवान् श्री राम और रामायण से हमारी आस्था जुडी हुई है इसलिए उनसे जुडी हुई किसी भी चीज़ का लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध करना हमारा संवैधानिक अधिकार है। सबसे बड़ा सवाल है की अगर आने वाली पीढ़ी रामायण को इस तरह देखेंगी तो वो उसके महत्त्व को कैसे समझेंगी? ये सिर्फ एक मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रह जाएगी।
आस्था में ज़माने के बदलाव का तर्क देना बेवकूफी है। आस्था कभी नहीं बदलती। इसलिए क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का ढोल पीटना बंद कीजिये। रामायण और महाभारत हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत हैं। भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम पूज्य ईश्वर हैं और इनसे जुड़े हुए दूसरे पात्र भी हमारे लिए अनुकरणीय और पूज्य हैं। इनसे सम्बंधित कोई भी बदलाव हमें स्वीकार नहीं है। हमें अपने अतीत के पात्रों और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों पर अथाह गर्व है।