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फिल्मी पठान : अब्दुल रहमान से बादशाह खान तक

आजकल शाहरुख खान की नई फिल्म पठान चर्चा में है। शाहरुख खान ने इसमें एक ऐसे जांबाज खुफिया पुलिस अफसर पठान की भूमिका की है, जो देशद्रोही माफियाओं से अकेला ही लड़ता है। अफगान की पश्तून जाति से आने वाले पठान पात्रों की हाजिरी उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी स्वतंत्रता है। जिस साल भारत एक आजाद देश के रूप में अस्तित्व में आया, उसी साल 1947 में पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर ने ‘पठान’ नाम का नाटक खेला था। नाटक में एक पठान अपने एक हिंदू मित्र के बेटे को बचाने के लिए अपने इकलौते बेटे का बलिदान देता है। पृथ्वीराज के पेशावर के मित्र चंद बिस्मिल ने पठान लोग ‘ब्याजखोर’ और ‘चौकीदार’ होते हैं। इस व्यापक मान्यता को खत्म करने के लिए यह नाटक लिखा गया था और पृथ्वीराज को तत्कालीन राजनीतिक वातावरण में यह नाटक मंचन के लिए उचित लगा था। इस नाटक में पृथ्वीराज कपूर ने ही पठान की भूमिका की थी। कपूर वैसे तो खत्री हिंदू थे, परंतु पेशावर में उनके पूर्वज पश्तू भाषा बोलते थे, इसलिए वे खुद का ‘हिंदू पठान’ के रूप में परिचय कराते थे।

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इस कपूर पठान का फिल्मों या कला के साथ कोई लेनादेना नहीं था। परंतु पृथ्वीराज के पिता बगेश्वरनाथ कपूर, जो ब्रिटिश पुलिस में सब-इंस्पेक्टर , थे, वह सपरिवार मुंबई आ कर फिल्मी दुनिया में नसीब आजमाने का प्रयास किया था। (अगर आप को याद हो तो राज कपूर की आवारा फिल्म उनकी भूमिका थी) उस समय फिल्म इंडिया नाम का फिल्मी सामयिक चलाने वाले और अपनी धारदार कलम के लिए जाने जाने वाले फिल्म विवेचक बाबूराव पटेल ने लिखा था, ‘ये पठान एक्टर्स बनने आए हैं, इनके लिए यहां जगह नहीं है।’ उस समय युवा पृथ्वीराज ने पटेल को कहा था, “बाबूराव इस पठान को चैलेंज मत करना। भारत की फिल्मों में जगह नहीं होगी तो सात समंदर पार कर के हालीवुड जा कर एक्टर बनूंगा।’ बहुत कम लोगों को पता है कि पृथ्वीराज का छोटा भाई त्रिलोक कपूर भी एक्टर था। 1933 में ‘चार दरवेश’ नाम की फिल्म से उसने सफल शुरुआत की थी।

संभवत: हिंदी सिनेमा के परदे पर पठान की पहली भूमिका पृथ्वीराज कपूर के बेटे राज कपूर की ही फिल्म ‘छलिया’ 1960 में एक्टर प्राण ने की थी। मनमोहन देसाई निर्देशित फिल्म ‘छलिया’ के निर्माता के रूप में वैसे तो उनके भाई सुभाष देसाई का नाम है, परंतु मूल में इस फिल्म का विचार राज कपूर का था। राज कपूर उस समय हीरो के रूप में स्थापित हो चुके थे। विभाजन में पति-परिवार से बिछुड़ गई महिला शांति (नूतन) की आनंद राज आनंद की कहानी राज कपूर को पसंद आ गई थी और इस पर फिल्म बनाने का निर्णय कर लिया था।

आनंद राज आनंद (टीनू आनंद के पिता) पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर के सर्जक थे। उन्होंने राज कपूर की ‘आग’, ‘आह’, ‘अनाड़ी’ और ‘संगम’ लिखी थी। आनंद ने रशियन लेखक फ्योदोर दोस्तोवेस्की के उपन्यास ‘ह्वाइट नाइट’ से ‘छलिया’ की प्रेरणा ली थी। फिल्म की सफलता में कल्याण जी-आनंद जी के संगीत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ‘छलिया मेरा नाम…’, ‘डम डम डिगा डिगा…’, ‘तेरी राहों में खड़े हैं…’ और ‘मेरे टूटे हुए दिल से…’ आज भी उतने ही लोकप्रिय गाने हैं।

उस समय हिंदी फिल्मों में खलनायक के रूप में प्रसिद्धी पा चुके प्राण किशन सिकंद उर्फ प्राण ने ‘छलिया’ में अब्दुल रहमान नाम के पठान की भूमिका की थी। वैसे तो यह पठान रहमदिल था और एक तरह से निर्मम भी था। उसने शांति को दंगाइयों से बचाया था। इतना ही नहीं उसे बहन के रूप में घर में आश्रय भी दिया था। पठान की अपनी बहन सकीना भारत में रह गई थी। उसने घर में रहने वाली शांति का चेहरा देखने से इनकार कर दिया था। जिससे उसकी बहन भारत में जहां भी हो, वहां उसके साथ भी ‘हिंदू’ या ‘सिख’ वैसा ही व्यवहार करें। पठान ने इसी तरह पांच साल तक शांति को अपने घर में रखा था। पर बाद में छलिया से पुरानी दुश्मनी निकालने के लिए शांति का ही अपहरण करने की धमकी दी थी।

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उस समय किसी को भी अंदाजा नहीं था कि प्राण का यह अब्दुल रहमान सालों बाद ‘जंजीर’ का दिलेर शेरखान पठान बन कर दर्शकों के दिल पर छा जाएगा। पठान लोग अत्यंत विश्वासपात्र होते हैं। इनकी यह छवि बनाने में दो फिल्मों की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक हेमेन गुप्ता निर्देशित और बलराज साहनी अभिनीत ‘काबुलीवाला’ 1961 और दूसरी ‘जंजीर’ 1973। संयोग से ‘काबुलीवाला’ में भी पठान का नाम अब्दुल रहमान था। यह फिल्म रवीन्द्रनाथ टैगोर की संक्षिप्त कहानी पर बनी थी। टैगोर ने 1882 में अपनी बंगला मैगजीन ‘साधना’ के लिए ‘काबुलीवाला’ कहानी लिखी थी।

प्राण पंजाबी हिंदू थे, पर अपनी लंबी-तगड़ी काया और गंभीर आवाज के कारण किसी को भी उनके पठान होने का भ्रम हो सकता था। इनफेक्ट सलीम-जावेद की पटकथा पर प्रकाश मेहरा ने ‘जंजीर’ बनाने का निर्णय लिया तो सब से पहले शेरखान पठान के लिए प्राण का नाम ही तय किया गया। प्रकाश मेहरा ने फिल्म ‘छलिया’ में प्राण का काम देखा था। इसलिए ‘जंजीर’ की बात आई तो शेरखान की भूमिका के लिए प्राण की ही कल्पना की गई।

उस समय हीरो विजय की भूमिका कौन करेगा, यह तय नहीं था। क्योंकि उस समय ज्यादातर हीरो ने ‘जंजीर’ करने से मना कर दिया था। सलीम खान ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘राजकुमार और धर्मेन्द्र ने विजय की भूमिका करने से मना किया तो प्राण साहब ने ही प्रकाश मेहरा और देव आनंद की मीटिंग कराई थी। परंतु देव साहब ने (हीरो का कोई गाना न होने की वजह से) मना कर दिया था। तब प्राण साहब ने नवोदित अमिताभ का नाम सुझाया था।’

वितरकों ने प्राण के नाम पर ही फिल्म को हाथ में लेने के लिए हां किया था। क्योंकि उस समय अमिताभ का नाम बहुत बड़ा नहीं था और उनके पीछे फ्लाप फिल्मों की लाइन लगी थी। लोग फिल्म में प्राण को ही देखने थिएटर में आए थे, पर बाहर निकले तो उन्हें भावी सुपरस्टार और एंग्री यंगमैन अमिताभ बोनस में मिला था। बाक्स आफिस पर प्राण का कैसा जलवा था, यह इस बात से साबित होता है कि उसी साल आई मनोज कुमार की फिल्म ‘शोर’ है। इस फिल्म में रानी (जया भादुड़ी) के पिता खान बादशाह की भूमिका के लिए भी प्राण को आफर मिला था।

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फिल्म ‘जंजीर’ के लिए प्राण ने हां कर दी थी, तब उसके कुछ दिनों बाद मनोज कुमार ने उनसे संपर्क किया था और फिल्म ‘शोर’ में पठान की भूमिका करने के लिए कहा था। एक इंटरव्यू में प्राण ने कहा था, ”उपकार’ और ‘पूरब और पश्चिम’ के बाद मुझे मनोज कुमार के साथ काम करने का मौका नहीं मिला था। ‘शोर’ में उनकी ओर से मुझे पठान की भूमिका के लिए आफर मिला था। उस समय मैंने ‘जंजीर’ के लिए हां कर दी थी इसलिए मैंने ‘शोर’ में पठान की भूमिका पर करना उचित नहीं समझा।’ तब प्राण ने मनोज कुमार से कहा था कि अगर वह पठान की भूमिका में बदलाव करें तो वे उनकी फिल्म में काम करने को तैयार हैं। तब जवाब में मनोज कुमार ने कहा था कि अगर वह प्रकाश मेहरा के साथ बंधे हैं तो मैं भी अपनी पटकथा के साथ बंधा हूं। मैं किसी दूसरे को ले लूंगा। इस तरह शोर में पठान की भूमिका प्रेमनाथ ने की थी।

1992 में अमिताभ बच्चन ने ‘खुदा गवाह’ में बादशाह खान की भूमिका की थी। यह शायद पर्दे पर आने वाला अंतिम लार्जर देन लाइफ पठान था। कुछ हद तक इसमें ‘जंजीर’ के शेरखान जैसी ही दिलेरी और निष्ठा थी। ‘खुदा गवाह’ के बादशाह का एक संवाद फिल्मों के पठानों के चरित्र को उजागर करता है, “मेरा नाम बादशाह खान है… इश्क मेरा मजहब, मोहब्बत मेरा इमान…उसी मोहब्बत के लिए काबुल का पठान सरजमीं-ए-हिंदुस्तान से मोहब्बत का खैर मांगने आया है…आजमाइश कड़ी है, इम्तिहान मुश्किल, लेकिन हौंसला बुलंद… जीत हमेशा मोहब्बत का हुआ है… सदियों से यही होता आया है, यही होगा… खुदा गवाह है।’

         वीरेंद्र बहादुर सिंह

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