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ख़ाकी

ख़ाकी

खून से ख़ाकी सनी हुई है सिर भी उसका फटा पड़ा है। 
एक हाथ से माथ दबाए माँ तेरा लाल डटा पड़ा है।।
छोटी गुड़िया की शादी और पिता को लाठी की चिंता।
खा रखी कसम संविधान की इसलिए पीछे नहीं हटा।।
सर्द रात में घर पर बैठूं बच्चों को मैं लाड करूं।
नहीं कभी सिंदूर हटे हर मांग की खातिर जियूं मरूं।। 
शहर-शहर चिंगार हुआ वर्दी की अब आफ़त है।
देश का रक्षक कहलाना भी गर्व नहीं इबादत है।।
गोली खाकर सीने पर वीर जवानी लुटा गए।
जब आग लगी लेकर पानी हम उसको भी बुझा गए।।
ईद, दिवाली इस खाकी ने शहर का पहरा नहीं तोड़ा।
इक तुकराम ने गोली खाकर भी कसाब को नहीं छोड़ा।।
तुम पत्थर गोली बरसाओ कसम धरा की खाई है।
लहू बदन में बाकी जबतक हर शख़्स की लाज बचाई है।।

विनोद शुक्ला

कोतवाली निरीक्षक, बिधूना (औरैया)

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