स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुझे स्वतंत्रता आंदोलन और बलिदानों और स्वतंत्रता सेनानियों के अवदानों पर ज्यादा कुछ नहीं कहना। उनके अवदानों-बलिदानों पर सब जानते है और उनकी देशभक्ति के लिए शब्द नहीं है मेरे पास। हम उनकें साहसी कार्यों की आज कल्पना भी नहीं कर सकते।
जब स्वतंत्रता आंदोलन चला तब उस समय स्वतंत्रता का तात्पर्य ब्रिटेन से औपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्ति फिर उसके शासन से स्वशासन की और ये आंदोलन चला। कहने का मतलब है उस समय स्वतंत्रता/आजादी का मतलब हिंदुस्तान को दूसरें देश के शासन से मुक्ति तक सीमित था। किन्तु जैसे- जैसे ये आंदोलन आगे बढ़ा और 1947 तक आते-आते स्वतंत्रता का दायरा बढ़ा। स्वतंत्रता शासन से मुक्ति ही नहीं स्वतंत्रता के नये आयाम जुड़ गये। पाश्चात्य विचारकों के कारण बौद्धिक वर्ग में हिंदुस्तान की भौगोलिक-सांस्कृतिक व सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार नई चेतना का उदय हुआ।
वैयक्तिकता की विचारधारा के कारण समाज से पहले व्यक्ति को महत्त्व दिया जाने लगा। इसी व्यक्तिनिष्ठता के कारण वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग उठी। इसी वैयक्तिक स्वतंत्रता के पक्षधर लोग नई चेतना के वाहक बने। इसी वैयक्तिक स्वतंत्रता ने स्वंतत्रता में विचारों की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पूजा,आस्था,विश्वास, आदि सभी को प्राकृतिक स्वंतत्रता के दायरे में मानने लगे। इसी स्वतंत्रता के बढ़ते दायरें ने अधिकारों को उत्पन्न किया।
जो स्वतंत्रता केवल दूसरें देश के शासन की मुक्ति तक सीमित थी वो स्वतंत्रता आज वृहद् स्वरूप में हमारे सामने है।
किंतु सोचने की बात ये है कि क्या स्वतंत्रता से हम सही लक्ष्य तक पहुँच पाये? अभी वर्तमान केन्द्रीय सरकार का नारा है ‘सबका साथ,सबका विकास,सबका विश्वास’ इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या स्वतंत्रता के मायने आज आर्थिक विकास पर निर्भर है? हर व्यक्ति का विकास क्यों नहीं हो रहा,आजादी के 75 वर्ष बाद भी कई समाज,तबके पिछड़े क्यों है? क्यों उनके जीवन में स्वतंत्रता का फैलाव नहीं हुआ?
हम वृहद् स्थिति पर गौर करें तो सबसे बड़ी आश्चर्यजनक विषमता दिखाई देती है। इस संसार की आधी आबादी महिलाओं की है। भारत की आधी आबादी का उत्थान अभी शैशवावस्था में है। नारीवाद की विचारधारा भी पुरूष पोषित विचारप्रणाली है। विकास के किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी नगण्य है। जबकि संसार को चलाने,निर्देशित, संस्कार देने, आदमी को आदमी बनाने में सौ प्रतिशत भागीदारी है।
कामकाजी महिलाओं और गृहकार्य में जुटी महिलाओं में मूलतः कोई भेद नहीं ये भेद पुरूष कर देता है। अब समय आ गया है गृहकार्य में जुटी महिलाओं के कार्य का आर्थिक मूल्यांकन निर्धारित हो,तभी पुरूष की गृहिणी के प्रति सोच बदल सकती है। जनगणना ये कहती है कि आधी आबादी महिलाओं की है। ये आँकड़े मात्र है।
ये आधी आबादी ही संसार का पालन-पोषण करती है। उसको दिशानिर्देश देती है। शेष आधी आबादी महिलाओं पर ही आश्रित है इसलिए महिलाओं के परिणाम सौ प्रतिशत होने पर भी आधी आबादी के जीवन के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है।
स्वतंत्र जीवन की चेतना की वाहक स्त्री है किंतु विडंबना ये है कि जिस पुरूष को जन्म देकर स्त्री अपने कर्तव्यों को पालन करती है वहीं पुरूष निर्मम होकर स्त्री की स्वतंत्रता को ही समाप्त कर देता है।