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रामकथा सुंदर कर तारी, संशय बिहग उड़व निहारी…

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

श्रीराम कथा के प्रत्येक प्रसंग आध्यात्मिक ऊर्जा है। भक्ति के धरातल पर पहुंच कर ही इसका अनुभव किया जा सकता है। महर्षि बाल्मीकि और तुलसी दास सामान्य कवि मात्र नहीं थे। ईश्वरीय प्रेरणा से ही इन्होंने रामकथा का गायन किया था। इसलिए इनका काव्य विलक्षण हो गया। साहित्यिक चेतना या ज्ञान से कोई यहां तक पहुंच भी नहीं सकता। रामायण व रामचरित मानस की यह दुर्लभ विशेषता है। प्रभु बालक रूप में है,

वह वनवासी रूप में है,वह राक्षसों को भी तारने वाले है। सन्त अतुल कृष्ण कहते है कि प्रभु किसी को मारते नहीं,वह तो तार देते है। भव सागर से पार उतार देते है। प्रभु ने शिशु रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। इसलिए यह स्वयं में अलौकिक बेला थी। गोस्वामी जी लिखते है- जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥ अर्थात चर अचर सहित समस्त लोकों में सुख का संचार हुआ था।

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥

गोस्वामी जी लिखते है- रामकथा सुन्दर कर तारी, संशय बिहग उड़व निहारी। प्रभु श्री राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अवतार लिया था। श्री रामकथा आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करने वाली है। संत अतुल कृष्ण जी ने बताया कि यह लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। घर में राम विवाह संबन्धी चौपाई का भी नित्य गायन करना चाहिए।

जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये।
भुवन चारी दस बूधर भारी,सूकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी।
रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई ,उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई।
मणिगुर पूर नर नारी सुजाती, शूचि अमोल सुंदर सब भाँति।
कही न जाई कछू इति प्रभूति ,जनू इतनी विरंची करतुती।
सब विधि सब पूरलोग सुखारी, रामचन्द्र मुखचंद्र निहारी। 

स्वामी अतुल कृष्ण कहते है कि इसके लिए अपने मन को भी स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए। दर्पण साफ न हो तो चेहरा साफ नहीं यह लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। गोस्वामी तुलसीदास की चौपाइयों में मंत्र जैसी शक्ति है। इनका नियमित पाठ करना चाहिए।

श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन, हरण भवभय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख, कर कंज पद कंजारुणं।
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि, नोमि जनक सुतावरं।
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव, दैत्य वंश निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल, चन्द दशरथ नन्दनं।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु, उदारु अङ्ग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर, संग्राम जित खरदूषणं।
इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष मुनि मन रंजनं।
मम् हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खलदल गंजनं।
मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर, सहज सुन्दर सांवरो।
करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय, सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि, मुदित मन मन्दिर चली।
जानी गौरी अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम, अङ्ग फरकन लगे।

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