16 साल पहले सरकार बनाने के लिए, राजनैतिक दलों ने जनता को नज़रंदाज़ किया और ख़ुद के स्वार्थ आड़े लाकर प्रदेश की राजनीति का बुरा हाल कर दिया था। फिर भी कोई यह अनुमान नहीं लगा पा रहा था कि वोटिंग मशीनों में किसका भाग्य लिखा रखा है।
- Published by- @MrAnshulGaurav
- Thursday, 10 Febraury, 2022
लखनऊ। सरकार बनाने के लिए सभी राजनैतिक दलों ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पुरज़ोर कोशिशें कर ली हैं। अब सभी नेता और नेत्री दम साधे, इन चुनावों के नतीजों का इंतेज़ार कर रहे हैं। 10 मार्च 2022 का दिन सरकार बनाने को आतुर राजनैतिक दलों की क़िस्मत का फ़ैसला कर देगा कि प्रदेश की जनता किसे अपना सिरमौर बनाएगी।
जहाँ तक जनता, यानी कि मतदाताओं की बात है, तो वो भी चाय और पान की दुकानों से लेकर नाई की दुकानों तक में भी ‘मेरी सरकार-तेरी सरकार’ बहस कर रहे हैं। इस बहस-मुबाहिसे के बीच, मतदाताओं के पसंदीदा दल के ‘पूर्ण बहुमत’ के साथ ‘दोबारा’ सत्ता में आने की बात ज़ोर पकड़ने लगती है। तो इस ‘दोबारा’ शब्द पर ग़ौर करते हुए, क्यों न एक नज़र पहले के चुनावों में ‘पूर्ण बहुमत की सरकार’ पर डालकर मतदाताओं को ‘नज़र’ कर दिया जाए।
दस वर्षों का इतिहास इस मायने में बेहद महत्वपूर्ण
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव का पिछले दस वर्षों का इतिहास इस मायने में बेहद महत्वपूर्ण है। वो इसलिए, कि मतदाताओं ने दो धुर विरोधी दलों को बहुमत की सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया है। 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग जैसी शब्दावली प्रचलित कर विरोधियों चुनावी जंग में टिकने ही नहीं दिया। बसपा ने 2012 में फिर यही कोशिश करनी चाही, लेकिन युवाओं के नेता अखिलेश का चेहरा लोगों को भा गया। उत्तर प्रदेश में 2007 के इस चुनाव को इस मायने में याद किया जाएगा कि प्रदेश की जनता ने करीब 16 साल बाद किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का सौभाग्य प्रदान किया था।
16 साल पहले सरकार बनाने के लिए, राजनैतिक दलों ने जनता को नज़रंदाज़ किया और ख़ुद के स्वार्थ आड़े लाकर प्रदेश की राजनीति का बुरा हाल कर दिया था। फिर भी कोई यह अनुमान नहीं लगा पा रहा था कि वोटिंग मशीनों में किसका भाग्य लिखा रखा है। आँकलन करना भी मुश्किल था, लेकिन यह माना जा रहा था कि बहुजन समाज पार्टी सबसे अधिक सीटें पाएगी। फिर भी कोई उसे डेढ़ सौ से अधिक सीटें देने को तैयार न था।
और फिर चौथी बार हुई माया की ताजपोशी
परिणाम आया तो चौंकाने वाला था। 14 अप्रैल 1984 को स्थापना के बाद बसपा को प्रदेश में अपने दम पर सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाने में मायावती को कामयाबी हासिल हुई। बसपा के वोटबैंक में भी भारी इजाफ़ा हुआ था। अपने पहले चुनाव में 9.41% वोट पाने वाली बसपा को 2007 में 30.43% वोट मिले थे और 206 सीटों पर विजयश्री हासिल हुई थी। तब “चढ़ गुंडों की छाती पर, मोहर लगा दो हाथी पर” जैसे नारों के सहारे सत्ता में आकर चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली मायावती ने पार्टी की चुनावी रणनीति (सोशल इंजीनियरिंग) में व्यापक बदलाव किए थे।
सवर्ण जातियों में भरोसा जमाने की कोशिश में “तिलक, तराज़ू और तलवार….” जैसे नारों को बदल दिया गया और “हाथी नहीं है गणेश है…” जैसे नारों को प्रचलित कर दिया गया। मायावती ने अपने सियासी गुरु स्व. कांशीराम की रणनीति को भी बदल कर रख दिया। ब्राह्मणों को गालियां देने के बजाए सिराहने पर बैठाने के प्रयोग को कामयाबी मिली। दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण गठजोड़ में अतिपिछड़ों के तड़के ने मायावती को चौथी बार न केवल मुख्यमंत्री बनाया बल्कि पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने का मौका भी दिया।
सोशल इंजीनियरिंग के तहत, 139 सवर्णों को दिए थे टिकट
2007 में बसपा को अभूतपूर्व समर्थन मिलने की वजह बताते हुए चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में राजनीतिक विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. एसके चतुर्वेदी का कहना है कि “मंदिर आंदोलन के बाद से प्रदेश की राजनीति का मिजाज मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद बदला है। वर्ष 1993 में सपा बसपा के गठजोड़ के आगे राममंदिर लहर भी ठहर गयी थी। तब से हाशिए पर पहुँचे सवर्ण वर्ग के मतदाताओं को बसपा की बदली रणनीति से उम्मीद जगी थी और सम्मान बचाने की चाहत में बसपा का साथ दिया था।”
बसपा अध्यक्ष मायावती ने वर्ष 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के अंतर्गत 139 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट दिया था। तब बसपा ने 114 पिछड़ों व अतिपिछड़ों, 61 मुस्लिम और 89 दलित को टिकट दिया था। सवर्णो में सबसे अधिक 86 ब्राह्मण प्रत्याशी बनाए गए थे और इसके अलावा 36 क्षत्रिय व 15 अन्य सवर्ण उम्मीदवार चुनावी जंग में उतारे थे।
वर्ष 2007 के चुनावी नतीजे
पार्टी चुनाव लडें जीते मत फीसद
बसपा 403 206 30.43
सपा 393 97 26.07
भाजपा 350 51 19.62
कांग्रेस 393 22 8.84