देवी जगदंबा के नौ रूप है। क्रमशः इनकी उपासना से भक्त अपने भीतर अनेक सकारात्मक शक्तियों का विकास कर सकता है। नवदुर्गा के नौ दिन आध्यात्मिक साधना के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण होते है। नवरात्रि के तीसरे दिन चंद्रघंटा माता की पूजा आराधना की जाती है। चंद्रघंटा की पूजा करने शुभता का विकास होता है। भक्त में शालीनता सौम्यता आत्मनिर्भरता और विनम्रता आदि का जागरण होता है। देवी का यह रूप अत्यंत शांत और सौम्य हैं। माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा और मंदिर के घंटे लगे रहने के कारण देवी का नाम चंद्रघंटा पड़ा है। इनका वाहन सिंह है। इनकी दस भुजाओं में खडग, तलवार ढाल,गदा,पास, त्रिशूल,चक्र और धनुष है। इन प्रतीकों के रहते हुए भी मां सदैव प्रसन्न व सकारात्मक भाव में रहती है।
देवासुर संग्राम में असुर विजयी रहे थे। महिषासुर ने इंद्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। उसने अपने को स्वर्ग का स्वामी घोषित किया था। अपनी व्यथा लेकर देवता ब्रह्मा,विष्णु और महेश के पास गए थे। ब्रह्मा,विष्णु और शिव जी के मुख से एक ऊर्जा उत्पन्न हुई। अन्य देवताओं के शरीर से निकली हुई उर्जा भी उसमें समाहित हो गई।
यह ऊर्जा दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक कन्या उत्पन्न हुई। शंकर भगवान ने देवी को अपना त्रिशूल भेट किया। भगवान विष्णु ने भी उनको चक्र प्रदान किया। इसी तरह से सभी देवता ने माता को अस्त्र शस्त्र देकर प्रदान किये। इंद्र ने भी अपना वज्र एवं ऐरावत हाथी माता को अर्पित किया। यही माता चन्द्रघण्टा थी। उन्होंने असुरों को पराजित कर देवताओं को पुनः स्वर्ग में स्थापित किया।
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता मंत्र से भगवती दुर्गा के तीसरे स्वरूप में चन्द्रघण्टा की उपासना की जाती है। वन्दे वाच्छित लाभाय चन्द्रर्घकृत शेखराम्। सिंहारूढा दशभुजां चन्द्रघण्टा यशंस्वनीम्घ्।।