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भारत का स्वतंत्रता आंदोलन और उत्तर प्रदेश

      दया शंकर चौधरी

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह उत्तर प्रदेश ही था जहां से विद्रोह की शुरुआत हुई और जहां विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार का उत्तर प्रदेश के प्रति हमेशा उपेक्षापूर्ण रवैया रहा। इसके कारण जब बंगाल, मद्रास, मुंबई और अन्य क्षेत्रों में सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के कई नए आंदोलन शुरू हुए, तो उत्तर प्रदेश इससे पूरी तरह अछूता रहा। इसकी अनूठी पहचान और मौलिकता को भुला दिया गया।

उत्तर प्रदेश के युवा आंदोलनकारियों के साथ वकील, साहित्यकार, पत्रकार सहित सभी ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का अपने-अपने स्तर से विरोध किया था। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र ही थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों में ब्रिटिश दमन के खिलाफ जागरूकता पैदा करने की कोशिश की। उन्होंने अपने नाटकों अंधेर नगरी और भारत दुर्दशा तथा कविवचन सुधा पत्रिका में अपने लेखों में ब्रिटिश दमन को उजागर किया। यह नाटक वीर, श्रृंगार और करुण रस पर आधारित है। भारतेन्दु ब्रिटिश राज और आपसी कलह को भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। भारतेन्दु को अपनी रचनाओं के लिए कई बार अंग्रेजों के गुस्से का सामना भी करना पड़ा था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उत्तर प्रदेश

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस की प्रमुख भूमिका मानी जाती है। आइये एक नजर डालते हैं कांग्रेस की भूमिका के बारे में…। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश सिविल सेवक एओ ह्यूम द्वारा की गई थी। एओ ह्यूम 1857 के विद्रोह के दौरान उत्तर प्रदेश में इटावा के कलेक्टर थे। उस समय लाला लाजपत राय ने कांग्रेस के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था “कांग्रेस वायसराय लॉर्ड डफरिन की रचना थी।” पहले इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय संघ था। दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर इसका नाम बदलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया।

एओ ह्यूम

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन 28 दिसंबर 1885 में बॉम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुआ था। इस अधिवेशन में 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इन प्रतिनिधियों में गंगा प्रसाद वर्मा, प्राणनाथ पंडित, मुंशी ज्वाला प्रसाद, जानकीनाथ घोषाल, रामकली चौधरी, बाबू जमुनादास, बाबू शिव प्रसाद चौधरी और लाला बैजनाथ ने उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया था। कलकत्ता में आयोजित दूसरे अधिवेशन में उत्तर प्रदेश से प्रतिनिधियों की संख्या बढ़कर 74 हो गई । इस अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की। इसमें पूरे भारत से 431 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सत्र में सिविल सेवाओं से संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिए 17 सदस्यीय समिति का गठन किया गया। इस समिति में उत्तर प्रदेश से पांच सदस्य थे – लखनऊ के गंगाप्रसाद वर्मा, प्राणनाथ, मौलाना हामिद अली और नवाब रजा खान तथा प्रयागराज के मुंशी काशी प्रसाद।

मद्रास में तीसरे अधिवेशन की अध्यक्षता बदरुद्दीन तैयब अली ने की। इसमें नव घोषित प्रवर समिति में उत्तर प्रदेश से राजा रामपाल सिंह, मौलवी हामिद अली, रामकली चौधरी और पं. मदन मोहन मालवीय शामिल थे। इस अधिवेशन में पार्टी के संविधान और कार्यप्रणाली का मसौदा तैयार करने के लिए एक विधि समिति का भी गठन किया गया। लखनऊ से गंगा प्रसाद वर्मा, विश्व नारायण और मौलाना हामिद अली इस समिति का हिस्सा थे।

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कांग्रेस का चौथा अखिल भारतीय अधिवेशन प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में जॉर्ज यूल की अध्यक्षता में हुआ था।  यह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का पहला अधिवेशन था। उस समय ऑकलैंड केल्विन प्रांत के गवर्नर थे। उन्होंने अधिवेशन को असफल बनाने की बहुत कोशिश की। ब्रिटिश प्रशासन ने कई तरह की रुकावटें पैदा कीं, जैसे कांग्रेस को अधिवेशन आयोजित करने के लिए कोई जगह न देना, साथ ही अधिवेशन के प्रचार में बाधा डालना। जब राजा दरभंगा को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने प्रयागराज में *लोथर कैसल खरीदकर कांग्रेस को अधिवेशन के लिए दे दिया।

स्वतंत्रता आंदोलन

अनेक बाधाओं और नकारात्मक प्रचार के बाद भी यह अधिवेशन अब तक का सबसे सफल अधिवेशन रहा। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार इसमें कुल 1248 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इन प्रतिनिधियों में 11 नवाब, 1 शहजादा, 2 मुगल शहजादे, 3 अन्य शहजादे, 388 जमींदार, 448 वकील, 77 पत्रकार, 143 कमिश्नर, 58 शिक्षक और 10 किसान शामिल थे। प्रयागराज अधिवेशन संख्या के लिहाज से तो सफल रहा, लेकिन इसका प्रतिनिधित्व सामंती और कुलीन वर्ग के पक्ष में था। सामंती अभिजात्य वर्ग और कुलीन वर्ग के बढ़ते प्रभाव के कारण कांग्रेस का रुख अंग्रेजों के प्रति नरम पड़ गया। इस उदारवादी दृष्टिकोण का नेतृत्व रानाडे और गोखले ने किया। इस उदारवादी दृष्टिकोण के कारण ही 1892 में लंदन में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित करने का निर्णय लिया गया। हालांकि, बाद में इसका स्थान बदलकर प्रयागराज कर दिया गया।

1892 का अधिवेशन उत्तर प्रदेश में दूसरा कांग्रेस अधिवेशन बना। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन में कांग्रेस का संविधान अपनाया गया तथा राज्य समितियों के गठन का निर्णय लिया गया। सर सैय्यद अहमद खान और बनारस के तत्कालीन राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद ने इस अधिवेशन का विरोध किया था।

सर सैय्यद अहमद ने भारतीय मुसलमानों से कांग्रेस से दूर रहने की अपील की, लेकिन कांग्रेस की लोकप्रियता मुस्लिम समुदाय में बढ़ती रही। कांग्रेस अधिवेशनों में मुसलमानों की संख्या 1885 में केवल 2 थी, जबकि 1886 में 33 और फिर 1887 में 79 हो गई। मुसलमानों में कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सर सैयद ने कांग्रेस का विरोध करने के लिए मुहम्मदीन एजुकेशनल कांग्रेस और यूनाइटेड पैट्रियटिक एसोसिएशन नामक दो संगठनों की स्थापना की।

स्वदेशी आंदोलन

कांग्रेस के उदारवादी धड़े के विरुद्ध, गरम दल के रूप में अंदर से प्रतिरोध सामने आया। इस गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक और अरबिंदो घोष कर रहे थे। 1905 तक गरम दल और नरम दल दोनों का पार्टी पर महत्वपूर्ण नियंत्रण था। लेकिन बाद में तिलक की बढ़ती लोकप्रियता ने धीरे-धीरे दोनों गुटों के बीच दरार पैदा करना शुरू कर दिया। 1905 में बंगाल विभाजन के मुद्दे पर कांग्रेस के आंतरिक मतभेद चरम पर पहुंच गए थे। बंगाल विभाजन के खिलाफ स्वदेशी आंदोलन के दौरान कांग्रेस के गुटों में बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा के मुद्दों पर गहरे मतभेद थे।

बनारस में कांग्रेस का 21वां अधिवेशन ऐसे ही माहौल में आयोजित किया गया था। इस अधिवेशन में दोनों गुटों के बीच पहली झड़प हुई। झड़प की वजह प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत का प्रस्ताव था। उदारवादी चाहते थे कि यह प्रस्ताव पारित हो लेकिन तिलक और अन्य इसके खिलाफ थे। स्वदेशी आंदोलन को लेकर मतभेद भी फिर से उभर आए। समूहों के बीच मतभेद अपने चरम पर पहुंच गए और इसके परिणामस्वरूप 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी

उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत) में कांग्रेस समिति के पहले सत्र की अध्यक्षता पंडित मोतीलाल नेहरू ने की थी। मोतीलाल नेहरू और पंडित मदन मोहन मालवीय, दोनों उत्तर प्रदेश से थे, उन्होंने 1907 में सूरत अधिवेशन के दौरान उदारवादियों का समर्थन किया था ।
1909 ई. में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आगरा में प्रांतीय कांग्रेस का राजनीतिक अधिवेशन पुनः शुरू हुआ। 1910 तक कांग्रेस का संगठन प्रांत के कई जिलों में फैल चुका था। 1907 में उग्र आंदोलनकारियों के निष्कासन के बाद, 1914 में प्रथम विश्व युद्ध तक कांग्रेस उदारवादियों के नियंत्रण में रही।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना मुहम्मद अली और मौलाना शौकत अली जैसे नेताओं के प्रयासों से मुस्लिम लीग ने अपने उद्देश्य और नीतियों में कुछ बदलाव किए थे।इसने भारत में स्वशासन की प्राप्ति को अपना उद्देश्य माना और अंग्रेजों के प्रति निष्ठा की अपनी पुरानी नीति को त्याग दिया।

बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट और जिन्ना के प्रयासों से 1915 में मुंबई में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का संयुक्त अधिवेशन बुलाया गया। 1916 में एक बार फिर लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का संयुक्त अधिवेशन बुलाया गया। उस समय मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के नेता थे। वे 1904 से ही कांग्रेस के सदस्य थे। लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार थे। यहां कांग्रेस और मुस्लिम लीग की एकता और मजबूत हुई। संयुक्त योजना को कांग्रेस-लीग समझौता कहा गया। कांग्रेस का यह अधिवेशन इसलिए भी खास था क्योंकि तिलक 1907 के बाद पहली बार इसमें हिस्सा ले रहे थे। उस समय तिलक की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों ने कांग्रेस अधिवेशन स्थल तक घोड़ों की जगह उनकी घोड़ागाड़ी को खींचा।

गांधीवादी आंदोलन और उत्तर प्रदेश

महात्मा गांधी को भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का विचार सबसे पहले लखनऊ में आया था। गांधीजी 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के खिलाफ उनके आंदोलनों की सफलता की कहानियाँ पहले ही लोगों तक पहुँच चुकी थीं।

भारत में उनका भव्य स्वागत हुआ। महात्मा गांधी ने स्थानीय परिस्थितियों को समझने के लिए भारत के विभिन्न स्थानों का दौरा करने का निर्णय लिया। वे दिसंबर 1916 में लखनऊ पहुंचे जहां उन्होंने कांग्रेस के 31वें अधिवेशन में भाग लिया। यह अधिवेशन 26 से 30 दिसंबर तक लखनऊ में अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में हुआ। चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ला ने यहां उनसे मुलाकात की और उन्हें तिनकठिया प्रणाली के तहत नील की खेती करने वाले किसानों पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के बारे में बताया। उन्होंने गांधीजी से चंपारण आने का अनुरोध किया।

इसके बाद गांधी जी ने भारत में सत्याग्रह का अपना पहला प्रयोग 1917 में बिहार के चंपारण जिले में शुरू किया। यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा और अंग्रेजों को उनके सामने झुकना पड़ा। इस सफलता ने उन्हें पूरे देश का हीरो बना दिया और उन्हें  *रवींद्रनाथ टैगोर से महात्मा* की उपाधि मिली।

जवाहरलाल नेहरू की महात्मा गांधी से पहली मुलाकात *लखनऊ रेलवे स्टेशन* पर हुई थी । नेहरू महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे। इसके बाद गांधी जी लोगों में स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए कई बार लखनऊ आए। वह 11 मार्च 1919, 15 अक्टूबर 1920, 26 फरवरी 1921, 8 अगस्त 1921, 17 अक्टूबर 1925 और 27 अक्टूबर 1929 को लखनऊ आये। वे नेहरू की अध्यक्षता में आयोजित 49वें कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए लखनऊ भी आए थे। इस अधिवेशन में कांग्रेस का उद्देश्य समाजवाद तय किया गया था। कांग्रेस संसदीय बोर्ड का गठन भी इसी समय हुआ था।

खिलाफत आंदोलन (1919-1924 ई.)

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा तुर्की के सुल्तान के साथ किए गए व्यवहार के खिलाफ भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया था। तुर्की के सुल्तान को दुनिया की पूरी मुस्लिम आबादी खलीफा मानती थी। महात्मा गांधी ने इसे हिंदू-मुस्लिम एकता बनाने का अवसर माना और खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया। 20 जून 1920 को इलाहाबाद में हिंदू और मुस्लिम नेताओं की एक संयुक्त बैठक बुलाई गई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि दोनों ही देश अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग की नीति अपनाएंगे ।

इसके बावजूद हिंदू-मुस्लिम एकता लंबे समय तक कायम नहीं रह सकी। 1920 के कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में असहयोग आंदोलन को स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन जिन्ना, एनी बेसेंट आदि कई कांग्रेसी इसके विरोध में थे, इसलिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। तुर्की के नए नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने खलीफा का पद समाप्त कर दिया।

असहयोग आंदोलन (1920-1922 ई.)

असहयोग आंदोलन की शुरुआत स्वराज की मांग को लेकर हुई थी। इसमें सरकारी सेवाओं, उपाधियों, सरकारी शिक्षण संस्थानों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया। कांग्रेस का प्रांतीय अधिवेशन अक्टूबर 1920 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता डॉ. भगवान दास ने की थी । इस अधिवेशन में गांधी, मालवीय, मोतीलाल, जवाहरलाल, श्रद्धानंद, हकीम अजमल खान, मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना शौकत अली आदि ने भाग लिया था।

इस अधिवेशन में गांधीजी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में असहयोग का प्रस्ताव बहुमत से पारित हुआ। कांग्रेस ने पहली बार खादी का प्रचार, अस्पृश्यता उन्मूलन, शराबबंदी और राष्ट्रीय शिक्षा जैसे रचनात्मक सामाजिक कार्यों में अपनी भागीदारी शुरू की। उस समय कई छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और कई सरकारी कर्मचारियों ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के विकास के लिए बनारस में काशी विद्यापीठ, पटना में बिहार विद्यापीठ, अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ, अलीगढ़ में मुस्लिम विद्यापीठ और अलीगढ़ में जामिया मिलिया इस्लामिया (विश्वविद्यालय) की स्थापना की गई।

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उर्दू में जामिया का मतलब विश्वविद्यालय और मिलिया का मतलब राष्ट्रीय होता है। जामिया मिलिया की स्थापना महात्मा गांधी और मुहम्मद अली की अपील पर उन छात्रों और शिक्षकों द्वारा की गई थी जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की अंग्रेजों के प्रति निष्ठा से परेशान थे। आंदोलन के समर्थन में मोतीलाल नेहरू, देशबंधु चितरंजन दास, बाबू राजेंद्र प्रसाद, आसफ अली और राजगोपालाचारी जैसे प्रमुख वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी।विदेशी कपड़े जलाए गए। गांधीजी ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि, ज़ुलु युद्ध पदक और बोअर युद्ध पदक लौटा दिए।* हज़ारों की संख्या में सत्याग्रही गिरफ़्तार किए गए। इसी समय, ब्रिटिश प्रिंस ऑफ़ वेल्स भारत आए।

अक्टूबर 1921 में मौलाना हसरत मोहानी की अध्यक्षता में आगरा में उत्तर प्रदेश प्रांतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें ब्रिटिश राजकुमार के बहिष्कार को पूर्णतः सफल बनाने का निर्णय लिया गया। जनवरी 1922 को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में किए गए अनुरोध के अनुसार गांधीजी ने बारदौली से व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया। लेकिन, आंदोलन शुरू होने से पहले ही उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा में एक ऐसी घटना घटी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को एक नया मोड़ दे दिया।

चौरी चौरा कांड

चौरी चौरा कांड

5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी चौरा में असहयोग आंदोलन के लिए सत्याग्रहियों की एक बैठक तय हुई थी। सुबह से ही लोग सभा स्थल पर जुटने लगे थे। सत्याग्रही बहुत उत्साहित थे। उन्होंने बैठक से पहले दोपहर में जुलूस निकाला और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नारे लगाए। कुछ पुलिसकर्मियों ने सत्याग्रहियों को सड़क से हटाने की कोशिश की और उनके साथ दुर्व्यवहार किया। इससे सत्याग्रही भड़क गए और उन्होंने पुलिस पर हमला कर दिया। पुलिसकर्मी अपनी जान बचाने के लिए भागे और पास के चौरी चौरा थाने में घुस गए और दरवाजा बंद कर लिया। सत्याग्रहियों ने थाने को घेर लिया और उस पर गोलियां चलाईं। इस घटना में 22 पुलिसकर्मी (एक इंस्पेक्टर और 21 कांस्टेबल) मारे गए।

जब गांधीजी को इस घटना की खबर मिली तो उन्होंने 12 फरवरी को बरदौली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई और असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। गांधीजी के इस फैसले से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और कार्यकर्ता हतप्रभ रह गए और उन्होंने इस फैसले पर आपत्ति जताई।

सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि ऐसे समय में जब जनता का मनोबल चरम पर था, आंदोलन वापस लेना राष्ट्रीय त्रासदी से कम नहीं था। मोतीलाल नेहरू ने कहा कि अगर कन्याकुमारी के एक गांव ने गलती की है, तो हिमालय के एक निर्दोष गांव को इसकी सजा क्यों दी जाए? डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने लिखा कि जनता ऐसे हताश थी जैसे दौड़ता हुआ आदमी अचानक प्रहार से गिर जाता है।

दूसरी ओर, आलोचना से विचलित हुए बिना गांधीजी ने कहा कि उनका निर्णय आवश्यक और पूरी तरह से सही था। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा कि आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए वे हर तरह का अपमान, हर तरह का कष्टदायक बहिष्कार, यहां तक ​​कि मौत भी सहने को तैयार हैं। इस तरह असहयोग आंदोलन को उस समय रोक दिया गया जब यह अपने चरम पर था।

पूर्ण स्वराज्य

पूर्ण स्वराज्य का उद्देश्य

ब्रिटिश सरकार ने 1919 के भारत सरकार अधिनियम की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए साइमन कमीशन के नाम से एक आयोग का गठन किया। इसके सभी सदस्य अंग्रेज थे। *सर साइमन* को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। कांग्रेस और अन्य दलों ने साइमन कमीशन का विरोध करने का फैसला किया, क्योंकि आयोग में कोई भारतीय सदस्य नहीं था। जब आयोग बम्बई पहुंचा तो जगह-जगह साइमन वापस जाओ के नारे के साथ विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए। एक बार फिर देश का माहौल वैसा ही हो गया जैसा असहयोग आंदोलन के दौरान था।

कांग्रेस ने दिल्ली में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई और साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला किया। इसने मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। इस समिति को 1 जुलाई 1928 तक भारतीय संविधान के मसौदा सिद्धांतों को निर्धारित करने का काम सौंपा गया था। “नेहरू रिपोर्ट” के नाम से प्रसिद्ध यह मसौदा डोमिनियन स्टेटस या औपनिवेशिक स्वशासन की नींव पर आधारित था।

इस संबंध में अगस्त 1928 में लखनऊ के राजा महमूदाबाद महल में एक और सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। बैठक में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू रिपोर्ट से अपनी असहमति व्यक्त की। दिसंबर 1929 में लाहौर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया और नेहरू रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया।

क्रांतिकारी आंदोलन

क्रांतिकारी आंदोलन

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी लहर 1879 ई. के आसपास महाराष्ट्र में शुरू हुई जब वासुदेव बलवंत फड़के ने *कोली, भील ​​और धांगड़ जनजातियों* को एक साथ लाकर एक किसान समूह का गठन किया। उन्होंने अमीर ब्रिटिश साहूकारों को लूटकर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए धन इकट्ठा करने का फैसला किया। फड़के ने 200 समर्पित क्रांतिकारियों का एक समूह संगठित किया। इसे भारत की पहली क्रांतिकारी सेना माना जाता है। यह संघर्ष शीघ्र ही समाप्त हो गया। फड़के को पकड़ लिया गया और कालापानी भेज दिया गया, जहां उनकी मृत्यु हो गई। क्रांतिकारी आंदोलन की वास्तविक शुरुआत स्वदेशी आंदोलन से हुई । हालांकि, असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद यह व्यापक हो गया।

ऐसा माना जाता है कि चौरी-चौरा की घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेकर देश के गरीब और मध्यम वर्ग के युवाओं को गहरी निराशा पहुंचाई थी। यह वर्ग अंग्रेजों और उनकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ बुरी तरह से आक्रोशित था और अंग्रेजों को उन्हीं के अंदाज में जवाब देना चाहता था। असहयोग आन्दोलन की समाप्ति का युवाओं के मनोबल पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे “क्रांतिकारी सैन्यवाद” की ओर आकर्षित हुए।

काकोरी ट्रेन ऐक्सन 9 अगस्त 1925

काकोरी ट्रेन ऐक्सन 9 अगस्त 1925

काकोरी ट्रेन डकैती संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारी संघर्ष की पहली घटना थी। सचिंद्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल और योगेश चंद्र चटर्जी ने 1924 में लखनऊ में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) नामक संगठन की स्थापना की। संगठन ने 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना ले जा रही 8 नंबर डाउन ट्रेन को लूट लिया। इस डकैती का उद्देश्य स्वतंत्रता संग्राम के लिए धन इकट्ठा करना था। इस घटना को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के दस सदस्यों ने अंजाम दिया था।

बाद में इस संगठन के 40 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन 40 सदस्यों में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को मौत की सजा दी गई। गिरफ्तार क्रांतिकारियों का मुकदमा चंद्रभान गुप्त नामक एक युवा वकील ने लड़ा था। उन्होंने इसके लिए कोई फीस नहीं ली थी। बाद में वे स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये गये।

गिरफ्तारी से बच निकले एचआरए के सदस्यों ने फिरोजशाह कोटला में एक गुप्त बैठक की। इसमें बिखरे हुए क्रांतिकारियों को एकत्र करने का निर्णय लिया गया। इस बैठक में संयुक्त प्रांत का प्रतिनिधित्व शिव शर्मा, विजय कुमार सिन्हा और जयदेव कपूर ने किया जबकि पंजाब का प्रतिनिधित्व भगत सिंह और सुखदेव ने किया। क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सामूहिक नेतृत्व के साथ एक नया संगठन बनाने का भी निर्णय लिया गया।

नए संगठन का नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। चंद्रशेखर आज़ाद को इस संगठन का प्रमुख बनाया गया। एक केंद्रीय समिति का गठन भी किया गया जिसके सदस्य भगत सिंह, सुखदेव, शिव शर्मा, विजय कुमार सिन्हा, कुंदनलाल और फणींद्र घोष थे। संगठन का मुख्यालय आगरा था। साइमन आंदोलन के दौरान लाला लाजपत राय को लाठियों से पीटा गया था। इन चोटों के कारण उनकी मृत्यु हो गई। HSRA के सदस्यों ने उनकी क्रूर हत्या का बदला लेने का फैसला किया। चंद्रशेखर आज़ाद और उनके साथियों ने 19 दिसंबर 1928 को सॉन्डर्स नामक एक पुलिस अधिकारी की हत्या करके इस अपमान का बदला ले लिया।

सॉन्डर्स की हत्या ने क्रांतिकारियों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों के बजाय सार्वजनिक रूप से काम करने का फैसला किया। उन्होंने जनता को भड़काने के लिए दिल्ली में केंद्रीय विधान सभा में बम फेंकने की योजना बनाई। यह जिम्मेदारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को दी गई। दोनों क्रांतिकारियों ने 9 अप्रैल 1926 को बम फेंका और तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया। इस योजना में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के शिव शर्मा और जयदेव कपूर ने सहायता की।

उस समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर बम फेंकने का मुकदमा चला। सॉन्डर्स की हत्या के लिए भी भगत सिंह पर मुकदमा चला। शिव शर्मा और जयदेव कपूर को सहारनपुर से गिरफ्तार किया गया। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई। अन्य दोषियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई। चंद्रशेखर आज़ाद को अंत तक पकड़ा नहीं जा सका। 27 फरवरी 1931 को प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ मुठभेड़ के दौरान चंद्रशेखर आज़ाद ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी।

दूसरा किसान आंदोलन (1931 ई.)

दूसरा किसान आंदोलन (1931 ई.)

जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगियों ने सितंबर 1931 में प्रयागराज और आसपास के क्षेत्रों में *नो टैक्स अभियान* शुरू किया।
इस अभियान के दौरान लाल बहादुर शास्त्री और जयप्रकाश उनके मुख्य सहयोगी थे।महात्मा गांधी 29 अगस्त 1931 को ही दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए रवाना हो चुके थे। इस दौरान जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटिश अधिकारियों को ब्रिटिश कानूनों के कारण किसानों को हो रही समस्याओं से अवगत कराया। पुरुषोत्तम दास टंडन ने उनकी सहायता की। महामंदी के कारण कृषि उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट आई थी।

इसके बावजूद ब्रिटिश सरकार कर और लगान बढ़ाने पर अड़ी हुई थी। बढ़े हुए कर न चुका पाने के कारण किसानों पर अत्याचार किए जा रहे थे। जब नेहरू के नेतृत्व में किसानों की जायज मांगों पर सुनवाई नहीं की गई तो नेहरू को मजबूरन शांतिपूर्ण आंदोलन का आह्वान करना पड़ा। 26 दिसंबर को नेहरू और अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

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