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पाकेट मनी: खून और आंसू

उसने बड़ी तेज आवाज के साथ अपने कमरे का दरवाजा खोला, बैग पलंग पर पटकते हुए मुँह के बल लेट गया। स्कूली ड्रेस और जूते भी नहीं उतारे थे उसने। दरवाजे की तेज आवाज सुनकर माँ चौंक गईं, घबराते हुए बोल पडी़ं क्या हुआ बेटा…। कमरे में जाकर देखा तो बेटा कुछ परेशान सा औंधे मुँह पलंग पर लेटा हुआ था।

पाकेट मनी: खून और आंसू

सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने प्यार से पूछा ‘क्या हुआ बेटा, तुम इतने परेशान क्यों हो।’ माँ को आशंका हुई कि बेटे को कोई परेशानी तो नहीं है। उसने मुंह फेरते हुए बेमन से जवाब दिया…. नहीं, कोई बात नहीं है। मां ने कहा…बेटा कोई बात तो जरूर है, आज मुझे तू कुछ परेशान सा लग रहा है, बता क्या परेशानी है।

पहले आलोचना, अब होती है सराहना

वह झल्ला कर बोला, रहने दो माँ, क्या करोगी जान कर, इस घर में किसी को मेरी कोई फिकर ही नहीं है। मैं कैसे कालेज जाता हूँ, कैसे दिन गुजारता हूँ, मेरे रोजमर्रा के काम कैसे चलते हैं, क्या कोई जानता है। रहने दो माँ, परेशान मत करो, मुझे आराम करने दो। माँ परेशान हो उठी, उसने प्यार से पूछा, कुछ कापी किताब की दिक्कत है, फीस-वीस की परेशानी है, या फिर कोई और बात है, बता… हम देखते हैं, जो कुछ बन पड़ेगा करेंगे।

पाकेट मनी: खून और आंसू

“रहने दो माँ… तुम्हें क्या मालुम, आजकल जमाना कितना बदल चुका है। कालेज में लड़के पाकेटमनी लेकर जाते हैं, लंच के समय कैंटीन में जाकर पैसे खर्च करते हैं, मनमाना खाते-पीते हैं और दोस्तों को भी खिलाते पिलाते हैं, मैं एक ओर खड़ा होकर सबका मुँह ताकता रहता हूँ। दोस्त मुझे भी बुलाते हैं, लेकिन मारे शरम के मैं उनके पास नहीं जाता। मेरे पास पैसे होते ही नहीं हैं। सोंचता हूँ रोज-रोज कौन मेरे ऊपर खर्च करेगा, कभी-कभार मुझे भी तो खर्च करना चाहिए, लेकिन क्या करूँ, मेरे पास तो पैसे होते ही नहीं है।”

ठीक तभी उसके पापा आ जाते हैं, दरवाजे की ओट से चुप-चाप माँ बेटे का वार्तालाप सुन कर मन ही मन उन्होंने कुछ फैसला किया और बिना कोई आवाज किए वहाँ से हट कर बाजार की ओर चल पड़े। वापस लौटे तो उनके हाथों में एक जेब में रखने वाला एक पर्स था। वे बेटे के पास पहुँचे। प्यार से उन्होंने कहा, ‘देखो तो बेटा, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ…। उसने बे मन से मुँह घुमाते हुए कहा, ‘क्या है…।’ पापा ने पर्स उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘देखो बेटा, मैं तुम्हारे लिए पर्स लाया हूँ।’

पाकेट मनी: खून और आंसू

उसने कहा, ‘रख दो, मैं बाद में देख लूंगा।’ वह फिर से मुँह घुमा कर लेट गया। पापा निराश होकर वापस लौट गये। वे अपनी पत्नी के पास पहुँचे, उन्होंने कहा, ‘ये पर्स मैं उसके लिए लाया था, इसमें मैंने सौ रुपये डाल दिए हैं। आज से मैं रोज इसमें सौ रुपये डाल दिया करूंगा। बच्चे बड़े हो गये हैं, अब उनके खर्च भी बढ़ रहे हैं। तुम उसे बता देना। कालेज जाते समय अपना पर्स साथ लेता जायेगा।

माँ ने उसे पर्स देना चाहा, लेकिन दूर से ही पर्स देखते हुए उसने कहा ‘अरे छोड़ो माँ, ये तो पुराना और देहाती टाइप का पर्स है, इसे कौन लेगा, मैं बाजार से अच्छा सा पर्स ले लूंगा।’ बात आई-गई हो गई। पर्स अलमारी के एक कोने में उपेक्षित सा पड़ा रहा।

समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। इसी के साथ बेटा भी अपनी पढ़ाई में आगे बढ़ रहा था। उसने पालीटेक्निक के बाद आइआइटी भी पूरा कर लिया। कुछ दिनों बाद उसे बैंगलोर की एक कंपनी में जाब मिल गई। बैंगलोर जाने के लिए जिस दिन वह अपना कपड़ों वाला बैग तैयार कर रहा था, तो पापा फिर से आ गये वही पर्स देने। उसने उनके हाथ से लेकर पर्स एक ओर डाल दिया और कंधे पर बैग टांग कर स्टेशन की ओर निकल गया।

पाकेट मनी: खून और आंसू

समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा, वह कहाँ रुकने वाला था। वह बैंगलोर चला गया और मनपसंद शादी करके वहीं सेटल हो गया। अब उसका अपने पुश्तैनी घर पर आना-जाना औपचारिकता भर ही था। इस बीच पिताजी रिटायर हो गये…। वे अपनी जमापूंजी से बेटी की शादी पहले ही कर चुके थे। बेटी भी कभी-कभार ही आती थी। दो चार दिन रुकने के बाद वह फिर से अपने ससुराल चली जाती थी।

समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। अचानक वे बीमार पड़ गये। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। माँ ने बेटे को फोन करके उनके बीमार होने की जानकारी दे दी थी। लेकिन बेटा अपने काम में इतना बिजी था कि वह घर आ नहीं सका। उसने अपनी बहन से फोन पर कह दिया कि तुम चली जाया करो।

माँ ने हेल्थ इन्स्योरेंस के जरिए उनका इलाज जारी रखा। पिता की फोर्थक्लास की नौकरी से जो कुछ मिला, वह सब कुछ इलाज में खर्च हो गया। आखिरकार उन्हें घर पर रह कर ही इलाज कराना पड़ा। पिताजी की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। माँ ने बेटे को सब कुछ सच-सच बता दिया था। बहन ने भी फोन पर पिता की नाजुक पोजीशन बताते हुए कह दिया कि ” अगर पिताजी को देखना है तो तुरंत आ जाओ। वरना तुम जानो, तुम्हारा काम…। उसने फिर वही काम और ब्यस्तता का राग अलापना शुरू कर दिया।

आखिरकार पिताजी चल बसे…। पिता के देहान्त के तीन दिन बाद जब वह घर पहुँचा तो वहाँ अंतिम संस्कार की परंपरायें निभाई जा रही थीं। घर पर भीड़-भाड़ थी। सब लोग उदास बैठे थे। माँ ने उसे सीने से चिपटा लिया और फफक कर रोनें लगी..। बहन ने भी उसे कोई भाव नहीं दिया। अचानक उसकी भांजी एक भारी-भरकम पर्स लेकर उसकी बहन के पास पहुंची कहने लगी, मम्मी-मम्मी देखो इसमें मामा की फोटो रखी है…। बहन ने पर्स लेकर देखा तो वह सौ-सौ के नोटों से भरा हुआ था। बहन ने पर्स लेकर अपनी माँ की ओर बढा दिया। माँ ने पर्स देख कर बेटे से कहा कि बेटा, ये पर्स तेरे पापा उस दिन लेकर आये थे जिस दिन तू कालेज से आकर ‘पाकेटमनी’ का रोना रो रहा था। उन्होंने सुन लिया था। उसी समय पर्स तुझे देना चाह रहे थे, लेकिन तूने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया…। बैंगलोर जाते समय भी तूने पर्स की ओर कोई ध्यान नहीं दिया..। बस उसी दिन से रोज इसमें सौ का एक नोट डालते रहे..। उन्होंने कहा था, कि इस पर्स से पैसे ना निकाले जायें, जब तू आ जाए तो तुझे सौंप दिया जाये। तो ले बेटा, अपनी अमानत अपने पास रख…। बेटा, काफी देर तक पर्स हाथ में लेकर शून्य की ओर घूरता रहा…अचानक उसकी आँखों से गंगा-जमुना की जल धार बह निकली…।

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