अफगानिस्तान में शांति बातचीत को लेकर तालिबान व अमरीका के बीच वार्ता जारी है. अफगानिस्तान की आंतरिक व बाहरी सुरक्षा केवल अमरीकी सैनिकों की मौजूदगी पर ही निर्भर करती है. इसके अलावे अफगानिस्तान में शांति बहाली को लेकर पड़ोसी देश हिंदुस्तान भी चिंतित है. इसके लिए हिंदुस्तान ने भी कई कदम उठाए हैं.इन सबके बीच जो सबसे बड़ी बात है वह का तालिबान पर भरोसा करने का है. क्योंकि 2001 से ही अफगानिस्तान में अमरीकी सैनिकों की मौजूदगी है व तब से लेकर अबतक तालिबानी आतंकवादियों ने कई बड़ी घटना को अफगानिस्तान में अंजाम दिया है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या तालिबान पर भरोसा करके डोनाल्ड ट्रंप गलती कर रहे हैं? यदि ऐसा है तो इसका परिणाम हिंदुस्तान पर क्या होगा? चूंकि हिंदुस्तान ने अफगानिस्तान के विकास व शांति बहाली को लेकर हजारों करोड़ रुपए निवेश किया है.
अमरीका की विदेश नीति में अफगानिस्तान?
दरअसल, अमरीका अफगानिस्तान में शांति बहाली व स्थिरता को अपनी विदेशी नीति के मुख्य एजेंडे के तौर पर देखता है. यही कारण है कि एक करीब दो दशकों तक अमरीका के लिए राजनीतिक, आर्थिक व क्षेत्रीय रूप से स्थिर अफगानिस्तान विदेश नीति में अहमियत के तौर पर रहा है.
हालांकि अब ट्रंप इसमें कुछ परिवर्तन करना चाहते हैं. उनका मानना है कि अमरीका दो दशकों से लड़ते-लड़ते थक चुका है व अब वे अमरीकी सैनिकों को अफगानिस्तान से बाहर निकालना चाहते हैं. 2016 चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने वादा भी किया था कि इराक व अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों को बाहर निकाला जाएगा.
2020 के चुनाव से पहले अपने वादे को पूरा करते हुए ट्रंप यह दिखाना चाहते हैं कि जो बोला था उसे पूरा किया है. यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रंप लड़ाई के बजाए अब राजनीतिक तौर पर तालिबान के साथ निपटना चाहता है. तालिबान को राजनीतिक ढांचे में शामिल करने को तैयार है.
तालिबान-अमरीका वार्ता
अमरीका व तालिबान के बीच सात दौर की वार्ता हो चुकी है. आगे कुछ मुद्दों को लेकर व भी वार्ताएं हो सकती है. ट्रंप के इस निर्णय से यह तो साफ है कि अमरीका तालिबान को अफगानिस्तान की सियासत व सरकारी तंत्र का मुख्य भाग बनाना चाहता है.
लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल के बीच यह सब सरल नहीं है. यही कारण है कि तालिबान ने बार-बार बोला है कि वह कहीं पर भी किसी समय हमला कर सकता है. वर्तमान समय में अफगानिस्तान के एक बड़े भाग में तालिबान का अतिक्रमण है. तालिबान के बगैर किसी भी तरह की राजनीतिक निवारण संभव नहीं है.
अफगान शांति बातचीत से किसको, कितना फायदा, आखिर तालिबान से क्या बात कर रहा है अमरीका ?
अभी तक अमरीका व तालिबान के बीच सात दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि किन-किन बिन्दुओं पर दोनों पक्षों में सहमति बनी है व कौन सा ऐसा आधार बिन्दु होगा जिसके बाद अफगानिस्तान में शांति बहाली की प्रक्रिया को पूरा माना जाएगा.
कई दौर की बातचीत से एक बात जो साफ हुआ है कि अमरीका तालिबान से यह गारंटी चाहता है कि अफगानिस्तान की भूमि का प्रयोग अमरीका के विरूद्ध नहीं किया जाएगा.
भारत की किरदार व चिंता
अफगानिस्तान में शांति का माहौल कायम करने में हिंदुस्तान की एक अहम किरदार है. यदि अफगानिस्तान अशांत रहता है तो हिंदुस्तान के लिए चिंताएं बहुत ज्यादा बढ़ जाएंगी.क्योंकि हिंदुस्तान ने अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर निवेश किया है. हिंदुस्तान ने आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक व कूटनीतिक निवेश भी बड़े पैमाने पर किया है.
अफगानिस्तान के विकास में हिंदुस्तान ने कई परियोजनाएं प्रारम्भ की है तो कई को पूरा किया है. भारत, अफगान नेशनल आर्मी, अफगान राजनयिकों, नौकरशाहों व बाका पेशेवरों को ट्रेनिंग देता है. हिंदुस्तान ने उनके लिए संसद की इमारत बनाई है, बांध बनाए हैं, सड़कें व बुनियादी ढांचा तैयार किया है. अफगानिस्तान में हिंदुस्तान की छवि बहुत सकारात्मक है, लोग हिंदुस्तान को पसंद करते हैं.
हालांकि अब जब अमरीका तालिबान को राजनीतिक मान्यता देने को लेकर आगे बढ़ रहा है ऐसे में हिंदुस्तान के लिए चिंताएं और चुनौतियां दोनों बढ़ सकती हैं. चूंकि भारत, तालिबान को मान्यता नहीं देता है व हिंदुस्तान कहता रहा है कि तालिबान अपने इस्लामिक एजेंडे से बाहर नहीं निकल सकता.
यदि तालिबान फिर से सत्ता में आता है तो सारे क्षेत्र में जो उग्र इस्लामी ताकते हैं, उनमें जोश भर जाएगा व फिर इसका निगेटिव दअसर हिंदुस्तान पर पड़ेगा. भारतीय कश्मीर में चरमपंथ बढ़ गया था.
हालांकि बदलते दशा के साथ हिंदुस्तान भी अपना रवैया बदल रहा है. हिंदुस्तान देख रहा है कि तालिबान का पक्ष भारी हो रहा है, ऐसे में हिंदुस्तान ने भी कुछ बैक-चैनल वार्ता की है.हिंदुस्तान चूंकि से पूरी तरह बाहर है, इसलिए अमरीका के जाने व तालिबान के सत्ता में आने से हिंदुस्तान के हित खतरे में पड़ सकते हैं.
बता दें कि अफगानिस्तान में करीब 57 फीसदी भाग सरकार के नियंत्रण में है जबकि तालिबान 15 फीसदी हिस्से पर काबिज है. बाकी बचे हिस्से के लिए दोनों के बीच प्रयत्न जारी है.