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एक तोला स्त्री

लोग आ रहे है जा रहे हैं। किसी को अपने पेट की चिंता है तो किसी को अपनों के पेट की। लेकिन जिसको पेट की तकलीफ न हो पर हमदर्द के दर्द की तलाश हो वो जमाने के साथ होकर भी अपनी जमानत खुद नहीं करा सकता।

       ज्ञानिचोर

दोपहर धूप बड़ी तेज थी। सूर्य चिलचिलाती प्रचण्ड किरणों के साथ ही उदित हुआ था। ये क्रोध सूर्य के गर्भ से निकला या धरती पर अनगढ़ जीवन जी रही स्त्रियों के अस्तित्व की खोज से उत्पन्न क्रोध की ज्वाला; यह कहना आसान तो नहीं परन्तु अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगा है। रूपनगर की सड़कें कहीं चौड़ी है, कहीं सड़क टूटी हुई तो कहीं मोहल्लों की गलियों की सड़कों पर ब्रेकर सबने मनमुताबिक बना रखे हैं। स्कूटी इन ब्रेकरों के ऊपर से कूदती है तो बीच में ठरका लगता है। तब लगता स्कूटी के दो टुकड़े हो जायेंगे। स्कूटी तो दूसरी आ जायेगी पर जिसकी जिंदगी के टुकड़े हो गए, उस जिंदगी पर बैल्डिंग कैसे हो ये सोचना जरा मुश्किल है।

लोग आ रहे है जा रहे हैं। चिंता किसी को अपने पेट की है तो किसी को अपनों के पेट की। लेकिन जिसकों पेट की तकलीफ न हो पर हमदर्द के दर्द की तलाश हो वो जमाने के साथ होकर भी अपनी जमानत खुद नहीं करा सकता।

टैंट लगा था उसमें मण्डप तो नहीं था मण्डप तो घर था। पर वहाँ आशीर्वाद के लिए मंच सजा था एक तरफ लोग फ्लोर पर डांस कर रहे थे। लोग क्या थे जी लूचे-लपाटे थे। हरियाणवी गाना चल रहा था ‘उड़्या-उड़्या रे कबूतर मेरे ढूंगे पर बैठा।’ इस कबूतर को और कोई जगह मिली नहीं बैठने को यही जगह बाकी थी हरियाणा में। अब तो इस कबूतर ने घर-घर डेरा डाल दिया।

चलो कोई बात नहीं बैठने दो बेचारे कबूतर को इस गर्मी में ज्यादा देर टिक नहीं पायेगा। दाना पानी के लिए अवश्य उड़ेगा ही। टैंट में अच्छी खासी कुर्सियाँ जमी थी। कोई बैठा था कोई गप्प लड़ा रहा था। कोई बेवजह हाँ-हाँ करके टाईम पास कर था। कुछ लोग टैंट के स्वागत द्वार पर खड़े थे।  टैंट में जीमने की व्यवस्था तो दूर पीने का पानी तक नहीं था। इत्र और सिगरेट का धुँआ! हे राम! सिर चक्कर खाने लग गया।

कोई सेल्फी ले रहा था कोई स्माईल दे रहा था। ठरकी लोगों का जमावड़ा भी था।

पीछे से आवाज आई ‘पारूल!’

मग्न पारूल सुन नहीं पाई।

पारूल! यार तुम कमाल की हो। मैं आवाज लगा रही हूँ तुम सुनती नहीं हो। क्या हुआ!

अरे! दीदी तुम आ गई। मैं आपका ही इंतजार कर रही थी। देखों न कितनी ऊब गई हूँ।

इधर-उधर की बातें हुई। फिर सब व्यस्त हो गये।

घटना हो या विचार क्षणभर में बहुत कुछ घट जाता है। स्वप्न सा चल रहा था….

बीतें दिनों में खो गई………

परिसर के बरामदे से जा रही थी। सोच तो कुछ नहीं रही थी पर चिंता की लकीरे अवश्य थी।

नमस्तें मैडम! नमस्ते मैडम! नमस्ते मैडम!….।

लड़कियाँ अभिवादन कर रही थी। मैडम को कुछ मालूम नहीं है। विचारों के अश्व की दौड़ बेलगाम थी,सरपट दौड़े जा रहे थे।

मैडम! क्या हुआ? आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या?

चेहरें पर मुस्कान लाकर ‘ मुझें क्या हो सकता है मैं तो ठीक ही हूँ।’

नहीं मैडम! आप का मूड ठीक नहीं है।

चलो चुपचाप पढ़ों। लिखों ‘ होरी रायसाहब के बुलाने पर उसके घर गया। गोबर रात के अंधेरे में घर से भाग गया। हल्कू अलाव जलाकर ठंड को दूर भगा……।

मैडम क्या लिखा रही है आप! होरी,रायसाहब,गोबर …..क्या लिखा रही हैं आप! और ‘पूस की रात’ कहानी का हल्कू ‘गोदान’ में कैसे आ गया। क्या हुआ है मैडम! आप इतनी अपसेट कैसे?

कुछ नहीं! तुम पढ़ो।

मैडम बताओं तो सही हुआ क्या है हमें भी तो पता चले हम भी तो स्त्री है।

हूँ….! जीवन में कौनसी परिस्थिति कहाँ तक फैली है कौन जानें? विषमताओं का जाल समाज में फैला है या सिर्फ स्त्री के जीवन में। स्त्री की आकांक्षाओं को पंख लगने से पहले ये पुरातन पुरूष समाज काट देता है। मान- मर्यादा,संस्कार के नाम पर थोपता चला जाता पाबंदियाँ। ये खोखले पुरूष सिर्फ संस्कार के नाम पर क्रोधित होकर अपना सिक्का जमाने का जुगाड़ करते है। परिस्थितियों में फलीभूत कर्म कब फलेगा कौन कह सकता है।

साधारण मनुष्य तो भावनाओं के बंधन में परिस्थिति के अनुकूल काम नहीं करता,परिस्थिति की प्रकृति अलग कर्म की मांग करती है और भावनाओं की प्रकृति अलग कर्म की मांग करती है। यह द्वंद्व स्त्री का है पुरूष तो भावनाओं में बहकर कदाचित ही कार्य करें।

स्त्री क्या चाहती है! क्या सोचती है इसकों तवज्जो देने की सिर्फ बात होती है।

मैडम! आप क्या कह रही हैं कुछ समझ में नहीं आ रहा।

तुमको समझ आज नहीं आयेगी। लोकव्यवहार और सामाजिक समझ के दायरे में जब बँधोगी तब बहुत कुछ मालूम हो जायेगा।

घटनाओं का जिक्र करने से क्या होगा? घटना थी घट गई छोड़ गई सन्नाटा….!

स्त्री है क्या ये हम स्त्री ही नहीं जानती खुद को। जिसने जाना उसने खोकर ही पाया है सब। खोने और पाने के बीच की खाई में जो निरंतर ज्वाला जलती है उसमें कितनी ही स्त्रियों ने अपना सर्वस्व जला दिया किंतु दुविधा ग्रस्त होने से ही स्त्री जलती है निर्णय करती है तो अबला या बेचारी और लाचार बनने का डर रहता है इस कारण वो समझदार स्त्री जलती रहती है और चुप रहती है। चुप इसलिए नहीं रहती या छिपाती इसलिए नहीं कि लोग क्या सोचेंगे बल्कि वो परिणाम जानती क्या होगा घटनाओं का या बातों। पुरूष सिर्फ घटनाओं का अनुकरण करता है घटनाओं के पार वो व्यवहार में नहीं सोचता।

पुरूष अपने को लौहपुरूष समझ कर गर्व करता है। हम स्त्रियों को तोला भर समझने वाला पुरूष अपनी विचारधारा को कितनी क्विंटल कर ले। पर जंग तो लगता ही है।

हम तोला भर ही सही ये तोला सोने का है। सोने की कीमत भी है और जंग भी नहीं लगता। अफसोस सिर्फ इतना है हम लोहे की धार से डर जाती है हमें ये सोचना चाहिए कितनी ही  धार तोले भर सोने में खरीदी भी जा सकती है।

मैडम! सब ऊपर से जा रहा है आज आप कितनी गूढ़ बातें कर रही है हमारी समझ से तो परे है।

आपकी समझ से इसलिए परे है क्योकिं हम सब घटनाओं से जोड़कर सब समझना चाहते है यही सीखाया है हमे तो। घटनाओं से हटकर घटनाओं के उत्पन्न तत्त्व को लेकर घटनाक्रमों के पार जाकर सोचों तब हमारी सोच की सामर्थ्य बढ़ेगी।

हमारी आशा,आकांक्षा, मान-सम्मान, यश, मर्यादा अधिकार सब तोला भर के है और कर्त्तव्य और संस्कार के नाम पर पाबंधी मण-मण की है। इसी बोझ तले स्त्री दबी की दबी रह गई।

मेरा स्त्रीत्व भले तोला भर का है किंतु पुरूष के टन भर की झूठी शान,अहंकार, क्रोध,कामुकता, प्रताड़ना से कहीं अधिक है।

लेखक का परिचय- शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.

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