भारतीय-सभ्यता संस्कृति की नींव रही हमारी शिक्षा शैली में तमाम प्रयासों के बाद भी नित हो रहे ह्रास, गहरी चिंता की लकीर खींच रहा है।यह पीडा और भी बढ़ जाती जब आज के युवा हाथ में सिगरेट और मुंह में तम्बाकू गुटका खाकर वेरोजगारी पर लेक्चर देते हैं। कलान्तर से हमारी शिक्षा ही हमारी पहचान रही है। जिसका वर्णन हमें रामायण महाभारत से लेकर अनेक ग्रंथो में मिलता है।जैसे भगवान राम के शिक्षक आचार्य बाल्मिकी जी पांडवो के शिक्षक द्रोणाचार्य कृपाचार्य फलस्वरूप एक-से बढ़कर एक वीर उनके हुए और ज्ञानी भी, जिनकी कहानियाँ आज भी आर्दश मानी जाती है। जबतक शिक्षा जगत में द्रोणाचार्य जैसे (मेरा मतलब विद्वता से है) शिक्षक नही आयेंगे तब तक यह स्तर बदलने वाला नही है।
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आज के डिजिटल युग में कोई पढ़ना ही नही चाहता बस गूगल पर देख लो। जबकि पहले के लोग किताबी कीड़े होते थे। तर्क वितर्क और कई विषयो का उन्हें ज्ञान होता था आज तो किसी एक सब्जेक्ट को पढ़ना पडे तो काफी जद्दो जहद करनी पड़ती है।हमारी रोज का बढ़ता कल्चर जिसे हमलोग मोर्डन कहते है यह सारी परेशानियों की जड़ है।
किताबी ज्ञान होना और कल्चरल ज्ञान होना दोनो अलग चीजे है।एकल परिवार कभी कल्चरल ज्ञान नही दे सकती जबकि संयुक्त परिवार से हमें कल्चरल वातावरण में रहने का, बोलने का, उठने- बैठने पर्व-त्योहारो और बडे बुजुर्गो से कहानियो से अनेक तरह की सीख और प्रेरणाएँ मिलती थी जो हमे कभी गैर जिम्मेवार नही होने देता था। आज भी जो थोडी बहुत पद्धति बची है ऐसे लोगो से ही बची है। जिस दिन यह पीढी सिमट गयी तो और ह्रास होगा।बेहतर बनाने के लिए इन्हें संरक्षित के उपायो और उपलब्धता बढाने के स्तर पर विभिन्न प्रदेश की सरकारों को विचार करना होगा नीति बनानी होगी तभी हम आने वाले समय में बेहतर शिक्षा सबको शिक्षा और समान शिक्षा दे पाएँगे और बढ़ती वेरोजगारी को भी कम कर पायेंगे।
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संविधान द्वारा प्रदत्त व्यवस्था में बेहतर शिक्षा पाना सभी का मौलिक अधिकार है, और सरकार को सभी के लिए समान शिक्षा मुहैया कराना उत्तरदायित्व भी।सरकारें कोशिश भी करती है लेकिन आज विलासिता के रथ पर सवार शिक्षक छात्र अधिकारी शिक्षा से जुड़े हर लोग ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में अपने दायित्व के प्रति उस जबाबदेही से काम नही कर पाते।
मौजूदा वक्त में शिक्षकों की पर्याप्त उपलब्धता मुहैया कराना होगा।सभी रिक्तियाँ योग्यता के आधार पर भरी जानी चाहिए।शिक्षा के मंदिर में आरक्षण जैसे दीमक के पेड़ का होना शिक्षा को और अधिक निम्न बनाया है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।हाँ आरक्षण होनी चाहिए, लेकिन उनके किताब वस्त्र और सुविधाओं पर न कि योग्यताओं में जब तक योग्यता शिक्षा रूपी मंदिर को सुशोभित नहीं करेंगे वेरोगार की फौज बढ़ती रहेगी। शिक्षा जो भारतवर्ष की नींव थी उसे कहीं न कहीं तो दीमक लगा है। चाहे वह जातिवाद हो,आरक्षण हो या फिर कुछ और?