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समाज

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शोषण की छाती छीलो, पथ के सारे पाहन तोड़ो।
जो भी तुमको रोक रहे हैं, पहले उनको पकड़ मरोड़ो।

जातिवादी कुछ टुच्चे तो, रहे सदा से राहों में।
लैकिन इनको तोड़ो-ताड़ो, धरो शूल अब बाँहों में।

कब तक रोओगे किस्मत पर, कब तक खुद को तोड़ोगे ?
झूठ मूठ के इस ढर्रे को, कहो सखे कब छोड़ोगे ?

रुको नहीं इन रोधों पर, इनको आखिर ढहना है।
नदी की भाँति बढ़े चलो, अविरल पथ पर बहना है।

दुर्गेश कुमार सराठे सजल, होशंगाबद (मध्यप्रदेश)

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